नवरात्रि का पहला दिन मां 'शैलपुत्री' को समर्पित
सरस्वती उपाध्याय
नवदुर्गा सनातन धर्म में भगवती माता दुर्गा जिन्हे आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा भी कहा जाता है, भगवती के नौ मुख्य रूप है, जिनकी विशेष पूजा व साधना नवरात्रि के दौरान और वैसे भी विशेष रूप से करी जाती है। इन नवों/नौ दुर्गा देवियों को पापों की विनाशिनी कहा जाता है, हर देवी के अलग अलग वाहन हैं, अस्त्र शस्त्र हैं परन्तु यह सब एक हैं और सभी परम भगवती दुर्गा जी से ही प्रकट होती है।
दुर्गा सप्तशती ग्रन्थ के अन्तर्गत देवी कवच स्तोत्र में निम्नाङ्कित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं–
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।।
नौ रूप...
देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं, जिन्हें नवदुर्गा कहा जाता है।
शैलपुत्री...
दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएँ हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएँ हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।
मंत्र...
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
कहानी...
एक बार जब सती के पिता प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमन्त्रित किया, पर अपने दामाद भगवान शंकर को नहीं। सती अपने पिता के यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमन्त्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहाँ जाना उचित नहीं है। परन्तु सती सन्तुष्ट नहीं हुईं।
सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुँचीं तो सिर्फ माँ ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव था। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुँचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने-आप को जलाकर भस्म कर लिया।
इस दारुण दुख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने ताण्डव करते हुये उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री का विवाह भी फिर से भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिव की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनन्त है।