'यकीन' संपादकीय
बचपन की ख्वाहिशें आज भी खत लिखती हैं मुझे,
शायद,
बेखबर है इस बात से कि वो जिंदगी अब इस पते पर नहीं रहती है।
बदलाव की बढ़ती शोहरत अनवरत अपनों के बीच गुमनामी की गुस्ताख़ इबारत ग़म की स्याही से गमगीन भरे वातावरण में रोज तहरीर कर रही है। बचपन से पचपन तक आते-आते सब कुछ बदल गया। मौसम का मिज़ाज बदला सियासी ताज बदला,शहर बदली गांव बदला अन्त और आगाज बदला'। इन्सानियत का लोप हो गया। लोगों के दिलो में मनुष्यता पर परजीवी फफूंद जैसे वैमनस्यता का कब्जा हो गया। संस्कार शब्द का अर्थ बदल गया। पुरातन सभ्यता का अर्थ ब्यर्थ हो गया। सम्बन्धों की परिभाषा अभिलाषा के दहलीज पर दम तोड रही है। इस मतलबी जमाने में फरिस्ता भी बदल रहे रिश्ता को देखकर हैरान हैं। लोग बरबस ही कह रहे हैं कैसी दुनियां बनाई भगवान है? अजीब मंजर है। सबके दिल में घुल चुका जहर है। हर चीज में तिजारत है। घर-घर में शकुनी घर-घर में महाभारत है ? स्वार्थ के वशीभूत अपनो के लिए जीवन भर सपना देखने वालों का आखरी सफर का हश्र भी मिश्र की पिरामिड की तरह रहस्यमी बनता जा रहा है। एक ही नदी के दो किनारे है दोस्तों।
दोस्ताना जिन्दगी से मौत से यारी रखो' मालिक की बनाई कारनामा में सबसे बुद्धिमान प्राणी आदमी है लेकिन जिस तरह से आज दुर्दशा झेल रहा है उतना तो पशु भी नहीं झेलते। वो भी मौत के दिन तक अपनी खुशहाली में खेलते हुते मरते! कितना गिर गया है आज का आदमी झूठ फरेब बेइमानी उसके खून के कतरे कतरे में समाहित हो गया है। बाप, मां, भाई जिनके बाजुओं में पलकर जमाने की खुशियां पाई वहीं रिश्ते- होते ही सगाई -कैसे -बदल जाते हैं?
वहीं घर बार सगे सम्बन्धी दिल से कैसे निकल जाते हैं!जीवन भर मर मर कर खून पसीना से पैदा की गई कमाई जिस औलाद पर उसकी खुशियों पर लुटाई वहीं आखरी सफर में बन गया कसाई! घर से निकला शहर के लिए तो फिर कभी वापस नहीं हुआ अपना पता तक गुमनाम कर दिया ?
'क्यों खाक छानते हो शहर की गलियों का'
जो दिल से ताल्लुक तोड़ते हैं फिर कही नही मिलते। हालात इस कदर ग़म जदा हो गया है की कदम कदम पर दर्द का तूफान आसमान पर छा गया। गलती कर रहा है इन्सान आरोप भगवान पर आ गया। आज गांव बीरान हो रहे हैं। कभी सम्बृधि की अलख जगाने वाली मकान सुनसान हो रहे हैं। पढ़-लिखकर ओहदा पाते ही वहीं सन्तान भूल गए जिनके लिए खेत खलिहान तक बिक गये! मकान गिरवी पड गया!सिसकते अरमान के साथ बूढ़े मां बाप का इम्तिहान भी भगवान खूब लेता है!आने वाली नस्लों को नसीहत देता है! सम्हल जा ए मगरुर इन्सान तेरा कोई नहीं! मत रह मुगालते में तेरा कोई नहीं! कोई घर ऐसा नहीं बचा जहां इन्सानियत रोई नहीं!अपना पराया का भेद आज पारिवारिक विच्छेद का जो नजारा पेश कर रहा उसी का दुष्परिणाम हर जगह देखने को मिल रहा है।
समाज में बढ़ रही बुराईयों को देखना हो तो एक बार बृद्धा आश्रमों में कराहती सिसकती आखरी सफर के तन्हा रास्तों पर बेसहारा अश्रु धारा बहाती उन बूढ़ी आंखों में अपनों के लिए गए दर्द की रुसवाईभरी जिन्दगी को जरुर देखें! सच सतह पर आकर आप के इन्सानियत को जगा देगी! बता देगी देख यही सच्चाई है। वक्त को पहचानिए!वर्ना एक दिन सिर्फ पश्चाताप के आंसू साथ रह जाएंगे।समाज में फैली रही हकीकत को जो करीब से होकर गुजरती है उसी को कलमबद्ध कर लिखता हूं।हो सकता है कुछ भाईयों को ठीक न लगे लेकिन सच हमेशा कड़वा होता है।
जगदीश सिंह सम्पादक