वैश्विक भूख सूचकांक : भारत में भूख से जूझता मेहनतकश
दुनिया भर में भूख और कुपोषण के स्तर और हालात पर हर साल ‘वैश्विक भूख सूचकांक’ या ‘ग्लोबल हंगर इण्डेक्स’ नाम से एक रिपोर्ट निकाली जाती है। यह रिपोर्ट जर्मनी की ‘वेल्ट हंगर हिल्फ़े’ संस्था एवं आयरिश संस्था ‘कंसर्न वर्ल्डवाइड’ द्वारा संयुक्त रूप से हर साल अक्टूबर में निकाली जाती है। वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट में भूख के कई पहलुओं और उनसे सम्बन्धित आँकड़ों को आधार बनाकर एक संख्यात्मक इण्डेक्स या सूचकांक तैयार किया जाता है। इस आधार पर विभिन्न देशों के भूख के स्तर और उनके वरीयता क्रम को दर्शाया जाता है। इसमें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर भूख, कुपोषण, पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कम वजन एवं लम्बाई तथा शिशु मृत्य दर को आधार बनाकर सूचकांक तैयार किया जाता है। यह भूख और कुपोषण के भयंकर स्तर को दर्शाता है और यह भी दिखाता है कि कैसे एक भारी आबादी को उचित भोजन और ऊर्जा की आवश्यक कैलोरी नहीं मिल पा रही है।
अक्टूबर 2020 में आयी वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है कि पूँजी की लूट से पूरी दुनिया में ही आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूख से पीड़ित है। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल के अन्त तक दुनियाभर में लगभग 69 करोड़ लोग भूख से पीड़ित रहे जिसमें से 13.5 करोड़ लोग तो भयंकर रूप से भोजन की समस्या का सामना कर रहे थे। लगभग 14.40 करोड़ बच्चे कुपोषण के कारण अपनी उम्र से कम लम्बाई के रह गये जो कुल बच्चों की संख्या का 21.3 प्रतिशत है। साथ ही 4.7 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिनका वजन उनकी लम्बाई के अनुपात में कम है जो कुल संख्या का 6.9 प्रतिशत है; यह कुपोषण की गम्भीर स्थित को दर्शाता है। 2018 में 53 लाख बच्चे पाँच वर्ष की आयु पूरा करने से पहले ही मर गये। अफ़्रीका विशेषकर सहारा रेगिस्तान के दक्षिण का हिस्सा और दक्षिण एशिया जिसमें भारत भी स्थित है, दुनिया का वह हिस्सा है जहाँ भूख की स्थिति अत्यधिक भयंकर है। दुनियाभर में आबादी का 8.9 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है।
वैश्विक भूख सूचकांक 2020 के अनुसार 107 देशों में भारत का स्थान 94वाँ है। आये दिन जनता को गुमराह करने के लिए लफ़्फ़ाजी करते हुए मोदी सरकार विकास और बदलाव की बात भर करती है जबकि इस रिपोर्ट के अनुसार पकिस्तान (88वाँ स्थान), म्यांमार (78वाँ स्थान), बांग्लादेश (75वाँ स्थान), नेपाल (73वाँ स्थान) और श्रीलंका (64वाँ स्थान) भारत से आगे हैं। हालाँकि इन देशों में भी मेहनतकशों की स्थिति अच्छी नहीं है, परन्तु रिपोर्ट के अनुसार तुलनात्मक रूप से यह भारत से ठीक स्थिति में हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत में उन बच्चों की संख्या जिनका वजन लम्बाई के अनुपात में कम है 17.3 प्रतिशत है जोकि बहुत ही भयानक है। वैश्विक भूख सूचकांक तालिका के अनुसार भारत को 27.2 अंक मिले हैं जो ‘गम्भीर श्रेणी’ में आता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल आबादी का 14 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जो कुपोषण का शिकार है। पाँच साल से कम उम्र के 34.7 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम लम्बाई के (stunting) हैं। भारत में पाँच साल से कम उम्र के 3.7 प्रतिशत बच्चे मर जाते हैं। ये महज आँकड़े भर नहीं हैं, ये मेहनतकश आबादी की लगातार हो रही हत्याएँ हैं जो पूँजी की लूट और हुक्मरानों की जनविरोधी नीतियों का नतीजा हैं।
वैश्विक भूख सूचकांक 2020 की रिपोर्ट बताती है कि कोरोना महामारी की वजह से खाद्य पदार्थों एवं पौष्टिक आहार की स्थिति और भी बदतर हुई है तथा भविष्य में इसके भयंकर प्रभाव दिखाई देंगे। पूँजीवाद पहले से ही ढाँचागत संकट से जूझ रहा है और कोविड महामारी की वजह से आर्थिक मन्दी में हुए इज़ाफ़े के कारण पूरी दुनिया में लगभग 8 करोड़ और आबादी कुपोषण की चपेट में आ गयी है। रिपोर्ट बताती है कि सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली गिरावट के कारण प्रति 1 प्रतिशत गिरावट पर पूरे विश्व में 7 लाख अन्य बच्चे भी उम्र की तुलना में छोटी लम्बाई के होंगे जो अत्यधिक कुपोषण की स्थिति होगी। भारत में इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है। इससे इस बात का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि भारत में ग़रीबों और मेहनतकशों के बच्चों की स्थिति कितनी भयंकर है। वैश्विक भूख सूचकांक की रिपोर्ट में कहा गया है कि विशेष रूप से समाज के वे लोग जिनकी स्थिति अत्यधिक खराब है और ग़रीब हैं उनके लिए कोविड महामारी और आर्थिक मन्दी के कारण भूख एवं भुखमरी की समस्या दोगुनी हो जायेगी।
भारत में भूख और कुपोषण की स्थिति पर भारत सरकार के आँकड़ों पर अगर नज़र डाली जाये तो स्थिति ऐसी ही नज़र आती है। नीति आयोग द्वारा भारत की ‘राष्ट्रीय पोषण नीति’ पर जारी पुस्तिका के अनुसार भारत में दुनिया के सर्वाधिक बच्चे हैं और यह पूरी दुनिया में बच्चों की आबादी का लगभग पाँचवाँ हिस्सा है। बच्चों और महिलाओं की आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग 70 प्रतिशत है । राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार भारत में 38.4 प्रतिशत बच्चे कम लम्बाई के; पाँच वर्ष से कम उम्र के 21 प्रतिशत बच्चे कम वजन के एवं कुल 35.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। देश में महिलाओं की कुल आबादी का 35.5 प्रतिशत कम वजन (Low BMI) एवं 55.3 प्रतिशत रक्त की कमी (एनीमिया) का शिकार हैं। भारत में पुरुषों की आबादी का 22.7 प्रतिशत हिस्सा ख़ून की कमी (एनीमिया) का शिकार है। राष्ट्रीय पोषण नीति पुस्तिका के अनुसार बाल मृत्य दर 50 प्रति हज़ार है। कहने के लिए मोदी सरकार द्वारा ‘विज़न 2022’ के नाम पर ‘कुपोषण मुक्त भारत’ का नारा तो दे दिया गया है परन्तु जनता के हाथ से रोज़गार छीनकर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने वाली यह फ़ासिस्ट सरकार जनता को छलावा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकती।
आख़िर क्या वाकई भारत में भूख और कुपोषण की इस स्थिति का समाधान सम्भव नहीं है? क्या भारत में खाद्यान्नों का उत्पादन इतना कम है कि इस देश की जनता को भूख से जूझना ही पड़ेगा? आइए एक नज़र कुछ आँकड़ों पर डालते हैं। भारत में मार्च 2020 में कोरोना के शुरूआती दिनों में भारतीय खाद्य निगम के चेयरमैन डी. वी. प्रसाद ने कहा था “चिंता की कोई बात नहीं है देश के प्रत्येक भाग में गेहूँ और चावल के पर्याप्त भण्डार हैं”। उन्होंने कहा कि भारत के पास डेढ़ साल तक यहाँ की ग़रीब आबादी के पोषण के लिए पर्याप्त खाद्यान्न मौजूद है। भारत में वर्ष 2015-16 में 2497 लाख टन, 2016-17 में 2729 लाख टन, वर्ष 2017-18 में 2828 लाख टन, वर्ष 2018-19 में 2813 लाख टन और वर्ष 2019-20 में 2920 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था। वर्ड इकनोमिक फ़ोरम के एक अनुमान के अनुसार भारत में पूरी आबादी को खिलाने के लिए 2300 लाख टन खाद्यान्न की जरूरत बताई गयी थी। इससे यह साफ़ है कि देश में आबादी को खाने के लिए अनाज की कमी नहीं है बल्किइसका पर्याप्त उत्पादन होता है। मोदी सरकार के कई मंत्री भी इस बात को कह चुके है कि देश में अनाज की कोई कमी नहीं है। पिछले कई सालों से देश में खाद्यान्न उत्पादन कुल आबादी की जरूरत से अधिक होने के बावजूद भी देश की भारी आबादी भूख का शिकार है। पूँजीवादी मुनाफे की चक्की में पिसते मजदूर वर्ग को एक तरफ़ तो बेरोज़गारी द्वारा और दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों द्वारा मुनाफ़े को लगातार बढ़ाने के चक्कर में मज़दूरी को इतना कम कर दिया गया है कि वह बमुश्किल से जीवित रह पाता है। वहीं देश में एफ. सी. आई के गोदामों में लाखों टन अनाज हर साल बर्बाद कर दिया जाता है। क्योंकि इस अनाज को अगर इस देश के ज़रूरतमन्दों में पहुँचा दिया जायेगा तो तमाम एग्रो-बिज़नेस कम्पनियों का मुनाफ़ा मारा जायेगा। लूट पर आधारित इस व्यवस्था में सरकारी नीतियों एवं पूँजीवाद की अपनी नैसर्गिक गति यही है कि इसमें पर्याप्त संसाधन मौजूद होने पर भी भारी आबादी भूख और कुपोषण का शिकार ही रहेगी।
जहाँ एक तरफ़ तो भारत में हर साल अरबपतियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है वहीं दूसरी तरफ़ ग़रीब और भी ग़रीब होता जा रहा है। बेरोज़गारी लगातार बढ़ती जा रही है। कोरोना-काल में एक तरफ़ इस देश के मज़दूर आबादी ने अभूतपूर्व विपत्तियों को झेला, दाने-दाने को मोहताज़ हुई वहीं फ़ोर्ब्स पत्रिका द्वारा 2020 के अरबपतियों की सूची में भारत के 9 नये नाम और जुड़ गये हैं। कोरोना-काल में जहाँ पूरे देश में आर्थिक मन्दी छायी रही; मज़दूर और ग़रीब आदमी की आमदनी ठप्प हो गयी, उसके रोज़गार छिन गये; वहीं देश के सबसे बड़े पूँजीपति मुकेश अम्बानी की आमदनी में 73 प्रतिशत का और गौतम अडानी की सम्पत्ति में 61 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ।
स्पष्ट है कि इस देश में भूख, कुपोषण और इस कारण से होने बाली मौतें चाहे वह बच्चों की मौतें हों या महिलाओं और पुरुषों की वे पूँजीपतियों के शोषण और सरकारों द्वारा इन पूँजीपतियों को और अमीर बनाते जाने के लिए काम करने का नतीजा है। भूख से मरने वाले और कुपोषण के शिकार लोग इस देश की ग़रीब जनता के बेटे-बेटियाँ हैं जो पूँजी की नंगी लूट की भेंट चढ़ रहें हैं। भूख और कुपोषण से न तो इस देश के धन्नासेठों और न ही नेता मंत्रियों के बच्चे मरते हैं; मरते हैं तो मेहनतकश ग़रीब और मज़लूम! कोई कारण नहीं है कि पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन होने के बावजूद कोई भी आदमी कुपोषित रहे और भूख से या कुपोषण के कारण दम तोड़े। पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े की गिरती दर से उबरने के लिए मेहनतकश को ग़रीबी, भूख और कुपोषण ही दे सकता है। पूँजी की अन्धी लूट ने मेहनतकश को जिस अन्धी गली में लाकर खड़ा कर दिया है वहाँ से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि शोषण पर टिकी इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ जाये।