ये खून से सनी रोटियां
संजीव परसाई
आओ कुछ ऐसा करते हैं, जो 16 मर गए है, उनकी मौत का इल्जाम उन्हीं पर रक्खे देते हैं। अगर मरना ही था तो कुछ और तरीका भी अपना सकते थे। सड़क पर पुलिस चार डंडे मारती, पर यूं तो न होता। कोई नहीं, बस तुम खुद ही जिम्मेदार हो।
सत्यानाश जाए इनका, पटरी पर आकर सो गए। भला ये भी कोई सोने की जगह है। कोई होटल ले लेते, या किसी सर्किट हाउस में ही रुक जाते। कुछ नहीं मिल रहा तो ट्वीट कर देते, टैग कर देते। तुम्हारे लिए ट्विटर पर ही बिस्तर लगवा देते। तुमने तो अच्छे भले चल रहे लॉक डाउन और कोरोना के खिलाफ जंग में जीत का ऐलान कर चुकी सरकार पर कलंक लगा दिया। कहा तो था, लिखा भी कि घर से न निकलो,घर में रहो...अब तुम्हारे पास घर ही नहीं था तो हम क्या करें। रोटी नहीं थी तो दिया- मोमबत्ती जलाते, आसमान पर माला टांगते। एक कमरे का घर, न पानी, न पानीदार, न हवादार।
मीडिया चिल्लायेगा, तुम्हारी मौत का जिम्मेदार ढूंढेगा। हम तो कतई नहीं है, न न हममें से कोई भी नहीं है, उनकी तरफ क्यों देख रहे हो वो तो बिल्कुल भी नहीं है।
हम देश के बारे में सोचते हैं, देश को जीते हैं, देश को ही मारते हैं, देश की सांस लेते हैं, देश को पकाते हैं और खाते भी। देश , देश और बस देश। भारत माता की जय...हमारा महान देश, महान सरकार, महान रेल और पटरियां, सिग्नल, इंजन, मालगाड़ी भी। तुम्हारे जैसे नामाकुलों के लिए सोचने का समय हमारे पास है कहाँ। हमें आपदा को उत्सव में बदलना है, चीत्कारों को खुशियों की चीख बना देना है, झर झर बह रहे आंसुओं को समुद्र की नमकीन लहरें बनाकर अठखेलियाँ करना है।
तुमको उमरिया आना था, या शहडोल जाना था आखिर क्यों ??? धरा क्या था वहां, किसके लिए, कुपोषण, बजबजाते नरदे, पानी का संकट, पैदल, पटरी पटरी, भूखे, छाले, पिचके गाल, हाहाकार, चीख, खून, शरीरों के उड़ते हुए चिथड़े, मालगाड़ी, सरकार, वायदे, व्यवस्था, लॉक डाउन, टनटन करती थालियां और उनमें खून से सनी सूखी रोटियां, चंद रुपये, ढेर से ट्वीट और बहुत गहरी खामोशी। बस इतना ही तो है अपना उमरिया और बाकी का शहडोल...
तुम बोलोगे सरकार का दोष दो महीने में तुम्हें घर पहुंचाने का हल न निकाल पाना है या देश के गरीबों को इस हाल मैं लाकर पटक देना। असल में देश में अमीरों की लाई त्रासदी की कीमत तुमको ही चुकानी है। मरोगे, सड़क पर पीटे जाओगे, कुत्ते की तरह घसीटे जाओगे, गर सिस्टम से टकराओगे।
सैंकड़ो किलो मीटर पैदल चलके अपनी दम दिखाना चाहते हो। हमसे टक्कर लोगे, हम गारंटी से तुम्हें दो दिन में भूल जाएंगे। तुम्हारा स्मारक बनाकर लोगों को बताएंगे कि हमने सोलह की कीमत पर सबको बचा लिया, ये अपनी किस्मत से मरे हैं, किसी ने मारा नहीं है इनको। सारे जिंदा-मुर्दा ताली बजायेंगे, थाली बजायेंगे, कुछ घंटी बजायेंगे, फिर लोग फेसबुक पर शोक सभा आयोजित करेंगे, फिर मुर्दा अपनी ही गलती पर छाती पीटेंगे। पानी मांगता विपक्ष, चादर ओढ़ सो रहे समाजवादी, कटी दुम पर मलहम पट्टी कर रहे मजदूर संघ और सिगरेट के ठुट्ठे जमा कर रहे वामपंथी ये दिखेंगे तेरे साथ पर होंगे नहीं।
ये खून से सनी रोटियां, कुछ दिन जिंदा आदम जात के निवालों का हिस्सा बनेंगी, स्वाद बदल देंगी, कोई ग्लानि से आत्महत्या भी न करेगा, न शर्माएगा, बस अपनी चीख दबाएगा । वादा करते हैं हम तुम्हें जरूर भूल जाएंगे, एक हादसे, एक परिवार की मौत, सोलह परिवारों की मौत, कुपोषित लोकतंत्र, कुर्सी पर उकड़ू होकर बैठी सरकार, निर्लज्ज सिस्टम, संवेदनहीन नॉकरशाह, हाहाकार और बस हाहाकार।