परिवर्तित संस्कार 'संपादकीय'
नकल से वफा, असल से बेवफाई चाहता हूं।
ये बद-मिजाजी है मेरी, ये मैं क्या चाहता हूं।
विश्व के हालात चिंताजनक होने के साथ-साथ दिन-प्रतिदिन मार्मिक होते जा रहे हैं। विश्व के विकसित देशों में कोरोना वायरस कोविड-19 ने तबाही मचा रखी है। जिंदगी के साथ, मौत का यह खेल किसी के भी मन को विचलित कर सकता है। देश के हालात भी ठीक नहीं है। संक्रमण पर अनुमानित नियंत्रण नहीं है। जिस को नियंत्रित करने में कारगर प्रयास किए जा रहे हैं। वायरस का आतंक इतनी आसानी से कम होने का कोई आसार नजर नहीं आ रहा है। विश्व के लगभग 200 देश महामारी का दंश झेल रहे हैं। कहीं चिकित्सा उपकरण, दवाइयां और चिकित्सक आदि का अभाव है तो कई गरीब देशों में खाद्यान्न की समस्या खड़ी हो गई है। भारतवर्ष के मूल निवासियों में संस्कारों का अभूतपूर्व सामजस्य रहा है। लेकिन संस्कारों का भौतिक आवरण भी परिवर्तित हो गया है। हमारी धारणा बनी रहती थी कि यदि हमारा पड़ोसी कष्ट में है तो हम स्वयं भी उसकी आभा में रत रहते थे। पड़ोसी के परिवार के भूखा रहने पर, हमें भी भूख नहीं लगती थी। लेकिन आज सामाजिक परिवेश में बड़ा परिवर्तन हो गया है। शासन और नीति परिवर्तन में बड़ा बदलाव आया है।
देश की गरीब और जरूरतमंद जनता की दुश्वारी पर खेद करने वालों का अकाल पड़ गया है। गरीब-मजदूर की मैली-कुचैली थाली से निवाले बीन-बीन कर खाने वाले रसूखदार अधिकारियों और नेताओं की बाढ़ आ गई है। सबसे भ्रष्ट कहे जाने वाली पुलिस फोर्स और चिकित्सक कर्तव्य का निष्ठा से पालन कर रहे हैं। बाकियों ने तो अपने आप से किए हुए वायदे भी भुला दिए हैं। पता नहीं वायरस जीवित छोड़ेगा भी या नहीं ?
देश के प्रतिष्ठित चैनल और अखबार सच दिखाने और सच को प्रकाशित करने से कतरा रहे हैं। बड़े-बड़े खुलासे करने वाले पत्रकारों की वरिष्ठता को वायरस सूंघ गया है। जनता के इतने बड़े जरूरतमंद तबके का शोषण हो रहा है। भूख-प्यास से त्रस्त गरीब, लाचार जनता को इस देश का नागरिक होने की यह कीमत अदा करनी पड़ेगी ? यह सच में कल्पना से भी परे है।
भविष्य के गर्भ में क्या पोषित हो रहा है? यह तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। लेकिन वर्तमान की कालिख इतिहास के कई पन्नों पर अपना प्रभाव स्थापित करेगी।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'