हित चिंतन (संपादकीय)
राष्ट्रीय विकारों को दृष्टिपात करने की समग्रता और समज को प्राप्त करने के लिए उदारता का त्यागना अनिवार्य है।सामाजिक ढांचे में, व्यवस्थाओं में, विचार और नीतियों का बोध स्वयं के 'स्वाध्याय' से ही प्रतीत किया जाता है। जो क्रिया-प्रतिक्रियाएं सार्वभौमिकता में व्याप्त रहती है। जिन्हें हम स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। लेकिन उससे आहत होकर भी, उसे रोक पाने में असमर्थता प्रतीत करते हैं। बल्कि पूरी तरह असफल रहने की निराशा हमें कसोसती-सरसराती रहती है। जबकि सफलता की सीढ़ियां चढ़ना ही हमारे उद्देश्य का पहला कदम बन जाता है। हम असहनीय पीड़ा का आभास करते रहते हैं, और भीतर आवेश में अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होते रहते हैं।
इन सब बातों का क्या अर्थ है? उत्तर-प्रदेश की भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा करने के वाक्य से ज्यादातर लोग परिचित है। जहां "सत्तारूढ़ दल के विधायक" को अनदेखी खल गई और कड़वा सच सर्वजनिक कर दिया है। यह पूरी तरह सच है, देश में असीमित 'भ्रष्टाचार, व्यवहार' में चलन बन गया है। जनता के धन पर कमीशन खोरी का घिनौना खेल खेला जा रहा है। जन विकास में प्रस्तावित कुल धन का 25 से 30 सरकारी अधिकारियों की जेबों में जा रहा है। कौन-सा अधिकारी इस सच से भाग सकता है? कौन-सा नेता है जो इस खेल का हिस्सा नहीं है। सौगंध लेने के लिए कुछ एक बचकर, बाकी रह गए हैं। इसमें भी कोई विशेष बात नहीं है। विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने क्षुब्ध होने के पश्चात ही सही,परंतु विषय-संगत आवाज उठाई है। जनता के हित में उनकी आवाज ने उत्तर-प्रदेश सरकार और प्रशासन को सोचने के लिए विवश कर दिया है। हालांकि किसी से भी कोई उम्मीद रखना बेईमानी होगी। क्योंकि 'हमाम' में 'सब के सब' नंगे हैं।
राधेश्याम 'निर्भय-पुत्र'