याद है, जब छोटे थे, तब स्कूल जाने के लिये अलह सुबह उठाया जाता था, यह कहकर देखो चिडिया आयी, देखो कौआ आया, वो देखो मोर आया। घर की मुण्डेर पर छोटी सी चिडिया चहकती रहती और उठकर स्कूल के लिये तैयार होने लगते। गरमी में कोयल की कूक मन को अलग ही सुकून देती थी। इसके बाद बच्चों को टीवी पर डोरीमॉन, नोमिता जैसे कार्टून कैरेक्टर्स को देखकर उठाया जाता था। अब तो मोबाईल पर ही सब कुछ उपलब्ध है, इसलिये टीवी की बजाय मोबाईल पर ही चित्र या कार्टून्स दिखाकर बच्चों को उठाने का जतन किया जाता है।
यह सच है, परिवर्तन बहुत ही तेजी से हुआ है, हमारी पीढी इस द्रुत गति से होने वाले परिवर्तन की साक्षात गवाह है। यह परिवर्तन सतत प्रक्रिया है, पर अस्सी के दशक के उपरांत परिवर्तन की गति को पंख लग चुके हैं। कल तक मुण्डेर पर बैठे कौए और अन्य पक्षियों के कलरव पर गाने भी बना करते थे, शकुन अपशकुन के मामले में भी अनेकानेक धारणाएं हुआ करती थीं।
विडंबना यही है कि हमने भाग दौड़ में आधुनिक दुनिया की कल्पना तो कर ली पर प्रकृति के साथ जो हमने छेड़छाड़ या सीधे शब्दों में कहें बलात्कार किया है, वह अक्ष्म्य ही है। इसका भोगमान कोई ओर नहीं वरन हमारी आने वाली पीढ़ी को ही भोगना है। ईश्वर ने इस कायनात की रचना की है। इस सृष्टि में जितने भी जीव जंतु प्रभु ने बनाये हैं, सबकी अपनी अलग-अलग भूमिका और महत्व है। स्वच्छंद विचरण करने वाले पक्षियों पर अघोषित तौर पर मानव का हस्तक्षेप भारी पड़ा है। अपने सुख सुविधा और स्वाद के चक्कर में पक्षियों को प्रश्रय देने के स्थान पर मौत के घाट उतारा गया, जिससे इनकी संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज की गयी, रही सही कसर पर्यावरण प्रदूषण ने पूरी कर दी।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां विलुप्तप्राय हैं। गिद्ध, सारस, कोयल, गोरैया, कौवा आदि अब बमुश्किल ही दिख पाते हैं। गुज़रे जमाने में राजा महाराजाओं से लेकर नवाबों की थाली की शान होने वाली शीली, बटेर, दिघोची, तीतर, लालशर जैसी चिडिया अब देखने को नहीं मिलतीं। अनेक निरामिष भोजनालयों में अब भुने हुए तीतर या बटेर के स्थान पर गोरैया को ही परोसा जाता रहा है। गाय, भैंस का दूध बढ़ाने की गरज़ से दी जाने वाली दवाओं का प्रतिकूल असर भी देखने को मिला है। इनके मृत शरीर का भक्षण कर पर्यावरण का एक सशक्त पहेरूआ गिद्ध अब देखे से नहीं दिखता है। पक्षियों की संख्या में कमी से पर्यावरण विशेषज्ञों की पेशानी पर चिंता की लकीरें साफ दिखायी पड़ने लगी हैं।
पर्यावरण विदों की मानें तो पक्षियों का होना मानव स्वास्थ्य के लिये अत्यावश्यक है। ये मानव जीवों के लिये खतरनाक कीट पतंगों को अपना निवाला बनाकर मनुष्यों की रक्षा करते हैं। ये पक्षी ही हैं जो कीट पतंगों के अलावा मृत जानवरों के अपशिष्ट को भी धरती से समाप्त करते हैं। विलुप्त होते पक्षियों को लेकर सरकारी और गैर सरकारी संगठन चिंता जाहिर कर रस्म अदायगी से बाज नहीं आते हैं। मन राखन लाल की भूमिका निभाने वाले इन संगठनों ने कभी भी पक्षियों को बचाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है। यहाँ तक कि भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा भी ग्रामीणों को जागरूक बनाने की दिशा में डाक्यूमेंटरी या विज्ञापनों का निर्माण तक नहीं करवाया गया है। परिणाम यह है! कि दीगर पक्षियों के अलावा हर घर में चहकने वाली गोरैया भी अब दुर्लभ पक्षी की श्रेणी में आ चुकी है।
एक समय था! जब घरों में महिलाओं द्वारा गेहूँ या चावल बीनते समय कुछ दाने इन चिड़ियों के लिये जानबूझकर गिरा दिये जाते थे। इन दानों के चक्कर में घरों के आसपास चिड़िया चहकती रहती थीं। अब मॉल्स और डिब्बा बंद प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के बढ़े प्रचलन ने इन पक्षियों के मुँह से निवाला छीन लिया है। इसके अलावा शहरों में सीना ताने खड़े मोबाईल टॉवर की चुम्बकीय तरंगों, वाहनों के द्वारा छोड़े जाने वाले धुंए ने भी पक्षियों के लिये प्रतिकूल माहौल तैयार किया है। एक अनुमान के अनुसार पक्षियों के कम होने के पीछे कामोत्तेजक दवाओं का तेजी से प्रचलन में आना है। असंयमित खानपान और रहन सहन के चलते कामोत्तेजक दवाओं का बाज़ार तेजी से गर्माया है। गोरैया के अण्डों का इस्तेमाल कामोत्तेजक दवाओं में किया जाता है। चीन के माफिया सरगनाओं ने गैण्डे के सींग से सेक्स बढाने की दवाएं ईज़ाद की। कल तक गैण्डों से आच्छादित भारत के जंगलों में अब इनकी तादाद महज़ 200 से भी कम ही रह गयी है।
अब समय आ चुका है !कि पक्षियों को बचाने की दिशा में हम जागरूक हो जायें। हमें हर हाल में पक्षियों के जीने के लिये अनुकूल माहौल प्रशस्त करना ही होगा। पक्षियों की तादाद अगर दिनों दिन कम होती गयी! तो पर्यावरण का जो असंतुलन निर्मित होगा उसका भोगमान किसी और को नहीं हमारी आने वाली पीढ़ी को ही भोगना होगा, जिसके उज्ज्वल भविष्य के लिये आज हम धन दौलत एकत्र कर छोड़ जाने वाले हैं। दिल्ली में पर्यावरण का असंतुलन साफ दिखायी देता है। सर्दी आते ही दिल्ली में जब चाहे तब शालाएं बंद करवा दी जाती हैं। सिवनी में आबोहवा अभी ठीक है पर अगर हम नहीं चेते तो हमारे जिले का हाल भी भविष्य में दिल्ली जैसा हो जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। हम अपने वंशजों को धन दौलत, संपन्नता, सुविधाएं तो देकर इस दुनिया से रूखसत हो जायेंगे, किन्तु जब पर्यावरण असंतुलित होगा तब हमारी आने वाली पीढ़ी जिस कठिनाई में जीवन व्यतीत करेगी उसका अंदाज़ा आज लगाना असंभव ही है। सरकार को चाहिये कि वह गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर पक्षियों को बचाने की दिशा में तत्काल ही कोई मुहिम की ठोस कार्ययोजना बनाये ताकि पक्षियों के कलरव को आने वाली पीढ़ी सुन सके और महसूस कर सके!