लोमस ऋषि और कागभुसडं कार्य-कलाप
मुनिवरो, आज हम तुम्हारे समक्ष पूर्व की भांति कुछ मनोहर वेद मंत्रों का गुणगान गाते चले जा रहे हैं। यह भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, आज हमने पूर्व से जिन वेद मंत्रों का पठन-पाठन किया। हमारे यहां इन वैदिक साहित्य में, वैदिक मंत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार का वर्णन होता है। क्योंकि वास्तव में यह वैदिक ज्ञान है। यह परमपिता परमात्मा की प्रतिभा कहलाती है। जिससे परमपिता परमात्मा में निष्ठा होती है और वह परमात्मा का ज्ञान और विज्ञान है। इसमें प्रत्येक मानव परंपरागतो से ही अनुसंधान करता रहता है। बहुत पुरातन काल हुआ ऋषि मुनि वेद मंत्र के ऊपर, उसके गर्भ में परिणत होकर के एक ऊंची उड़ान उड़ते रहे हैं। परंतु ऋषि-मुनियों का एक विशेषता 'ब्रह्मवाचा: वर्णोंति हिरण्यम' रहा है कि परमपिता परमात्मा का जो ज्ञान और विज्ञान है। वह इतना नितांत है इतना विचित्र है कि हम उस ज्ञान को चिंतन और मनन में लाने वाले मौन हो जाते हैं। प्रत्येक अवस्था में मानव मौन हो जाता है तो वह उनकी प्रवृत्ति मानव के हृदय में प्रविष्ट हो रही है। एक बड़ा विचित्र गंभीर ऋषि मुनियों का अध्ययन के प्रति क्रिया उनके समीप आती रही है। आज मै कोई विशेष विवेचना देने नहीं आया हूं। केवल कुछ परिचय देने आया हूं कि ऋषि-मुनियों ने यही कहा है कि हम परमपिता परमात्मा की सृष्टि में जब शिशु के रूप में दृष्टिपात आते हैं। कितना ही ज्ञान और विज्ञान में रमण कर जाएं, परंतु जब उसके अंतिम छोर पर हम परिणत होते हैं। तो शिशु के रूप में आते है। बहुत पुरातन काल हुआ मुझे काल स्मरण आ रहा है। जब महर्षि लोमश और कागभुसडं अपने-अपने स्थानों पर विद्यमान हो करके बहुत गंभीर अध्ययन करते रहते थे। एक समय ऋषि लोमस ने कागभुसडं जी से यह प्रश्न किया कि महाराज यह ब्रह्म यज्ञ और आंतरिक यज्ञ क्या है तो देखो कागभुसडं जी ने ॠषि जी से कहा कि भौतिक जगत और आंतरिक जो है यह जो प्रवृत्ति वाला गुण है। इसका समन्वय परमपिता परमात्मा की सृष्टि से माना गया है। परंतु यह जो हो रहा है इसमें जो सचहोता बने हुए हैं। वह नाना प्रकार की वस्तुओं को हृदय रूपी यज्ञशाला में यज्ञ कर्म कर रहे हैं। अथवा वह जो ज्ञान रूपी अग्नि प्रदीप्त हो रही है। उस ज्ञान रूपी अग्नि में ब्रह्म जगत से लाकर के आंतरिक जगत में जो हो रहा है वह चित्र में दृष्टिपात आता है। क्योंकि जो भी आंतरिक जगत में हो रहा है इंद्रियां जो श्रोता बनी हुई है। वैसा करके एकत्रित करके प्रवेश करा देती है। उससे मुनिवर संस्कारों का जन्म होता है। संस्कारों की उपलब्धियां होती है। 19 संस्कारों का समन्वय हमारा चित्र मंडल में प्रवेश करता है। चित्र मंडल का संबंध अहंकार से होता है। अहंकार का संबंध ही चतुरांतकरण से बंद करके वह प्रकृति का विशाल मंडल हमें दृष्टिपात आता है। तो बेटा यह योगिकवाद वाक्य कहलाते हैं। आज मैं तुम्हें एक विशाल क्षेत्र में ले गया कि मैं ऋषि कागभुसडं जी ने ॠषि लोमस मुनि को यह वाक्य प्रकट कराया। परंतु देखो उन्होंने कहा कि इसका कोई छोर नहीं है तो कागभुसडं जी ने कहा कि मानव चिंतन और मनन करता ही रहता है। जितना भी संसार का औसत है जितना भी संसार का रूप हमें दृष्टिपात आता है। परंतु जब इसको ज्ञान लेते हैं तो मौन हो जाते हैं। जब मौन हो जाते हैं तो मौन होने के पश्चात वही शिशु के शिशु बन जाते हैं। क्योंकि जैसे बालक आपदा में पीड़ित हुआ। आपदा जैसे शांत हुई और वह बालक मौन शिशु बना रहता है। परंतु देखो इसी प्रकार परमपिता परमात्मा के अनुपम जगत में प्रत्येक मानव शिशु के रूप में रहता है। चाहे कोई कितनी भी विशाल उडान उड़ने वाला क्यों ना हो?