गतांक से ...
यमआचार्य नचिकेता वार्ता कर्त्तव्यवाद
मुनिवर, पत्र और पुष्पों को लेकर उनका रस बनाकर के सेवन करते रहे हैं। उनको तपा-तपा करके उनका सेवन करना। और 'आनंद ब्रह्म' मन को पवित्र बनाना, अपने आप में रमण करना। विशुद्ध पवित्रता कहलाती है। परमात्मा के समीप जाने की एक पगडंडी है। तो पगडंडी क्या है? अन्न को पवित्र बनाना है। मन की उत्पत्ति उसी के द्वार से होती है। साकल्य मुनि महाराज ने 12 वर्ष के पांच अनुष्ठान किए और अनुष्ठान करने से उन्होंने यह यज्ञ में प्रतिक्रियाओं में लगे रहने से अग्नि के मुख में कुछ ना कुछ आहुति देना है। वह 'अग्नि ब्रह्मा' मुनिवर, देखो दो प्रकार की होती है। एक जो ब्रह्म जगत में प्रदीप्त हो रही है। उसका शोधन करना भी अनिवार्य है। एक अग्नि हमारे अंतर ह्रदय में प्रदीप्त हो रही है। उसे भी आहुती देना है। उसको आहुति वह पत्र और उसको को पान कराना है। जिससे मानव का ह्रदय पवित्रता की वेदी पर मानो रत हो जाए। महर्षि साक्लय मुनि महाराज प्रातः कालीन खेचरीमुद्रा में प्रणायाम करते थे। उससे उनकी अन्न की पूर्ति हो जाती थी। मध्यकालीन आता तो वह नाना वृक्षों के पुष्पों को ले करके उनको अग्नि में तपा करके रस बनाकर के पान करते थे। सायंकाल को सूर्य प्रणायाम ,सूर्य प्रणायाम में संकल्प, प्रणायाम की पुट लगा कर के, उसमें शीतली प्राणायाम करके, उस रस को सेवन करते थे ।जो वायु में परमाणुओं के रूप में बह रहा है। इस प्रकार का उन्होंने 12 वर्षों का अनुष्ठान किया। इससे उनका मन पवित्र बन गया। उनका मन महान बन गया। उन्होंने मोक्ष की पगडंडी प्राप्त कर ली। मोक्ष के निकट चले गए। क्या मानव के अंतकरण में, क्या चित के मंडल में जो ब्रह्मा संस्कारों की उदबुदता हो रही है। महानता हो रही है वह एक बार एकांत स्थली में विद्यमान थे। कहीं से विहीतं नामक एक दैत्य मांसाहार करने के लिए एक हिरनी के पीछे गति करने लगा। वह पूर्ण रूपेण गर्भवती थी। तो जैसे उसने अस्त्रों का प्रहार किया तो साकल्य मुनि ने आश्रम में आभाष किया हिरणी और 'प्रो' मानव है। गर्भाशय से विहीन हो गई। शावक को जन्म देकर हिरनी आगे चली गई। वह जलाईदी सावक साक्लय मुनि के आश्रम में रह गया। हिरनी तो आगे चली गई, दैत्य ब्रह्मा भी आगे गति करता रहा, तो ऐसा मुझे स्मरण है। साक्लय मुनि महाराज ने उस हिरनी के शावक को दृष्टिपात किया। अरे, इसमें तो कोई गति हो रही है और सांस की प्राण की गतियां हो रही है। तो साक्लय मुनि ने अपने कमंडल में से जल् उसके मुखारविंद में परिणित किया। उसकी सांसों की गति कुछ माध्यम बनी। अपनी स्थलीयो पर आ गई, सावक ने जल का और उपयोग किया तो है जीवित हो गया। साकलय मुनि ने उसे आलिंगन कर लिया तो उसकी पालना में, पोषण में लग गए। जब उसकी पालन-पोषण में लग गए। मेरे प्यारे, नाना प्रकार की भोज्य उसे प्राप्त कराआते रहते। समय पर जल प्रदान करते, समय पर उसे दुग्ध प्रदान करते हैं।मुनि वेचूक नामक राज्य के समीप पहुंचे और वेतकेतू राजा के द्वार पर जा करके उन्होंने कहा 'संभव लोकाम, मुनि को जब राजा ने दृष्टिपात किया तो वेतकेतू राजा ने उनसे कहा यहां मुनि का आगमन ,मैं दृष्टिपात कर रहा हूं। मेरा बड़ा अहोभाग्य, उन्होंने राज स्थल को त्याग दिया और यह कहा, आइए राजस्थान पर खडे हो गए और विधमान हो कर के राजा ने चरणों को स्पर्श करके कहा, कि भगवान कैसे आगमन हुआ? उन्होंने कहा, मुझे गौ की इच्छा है। मुझे दूध देने वाली गौ प्रदान कीजिए। महाप्रभु यह तो आप मुझे सूचना दे देते, मैं गौ आपके आश्रम में पहुंचा देता। प्रभु आपने कष्ट क्यों किया है? उन्होंने कहा कि भ्रमण करता हुआ मैं आ गया हूं कोई बात नहीं है। राजा ने ऋषि का स्वागत किया और अपने सेवको से कहा जाओ देखो ऋषि आश्रम में एक गौ को ले जाओ जो दूध देने वाली होनी चाहिए। मेरे प्यारे गौ आश्रम में पहुंच गई। ऋषि ने वहां से गमन किया। राजा ने कहा प्रभु और कुछ देख लीजिए। साक्लय मुनि ने कहा राजन तुम्हारी राष्ट्र में महानता होनी चाहिए। क्योंकि तुम्हारा राष्ट्र चरित्र में उत्पन्न होना चाहिए। तुम्हारे राष्ट्र में विद्या का मध्यम पवित्र होना चाहिए। तुम्हारा राष्ट्र विज्ञानवेता होना चाहिए। राजा को यह उपदेश देकर के वहां से आज्ञा पाकर के उन्होंने गमन किया। वह भ्रमण करते हुए अपने आश्रम में पहुंचे तो उन्हें वहां एक गाय प्राप्त हो गई। उसके दुग्ध को उस हिरनी के शावक को दुग्ध का आहार कराते हुए। दूध का पान कराते रहते थे। ऋषि ममता और मोह ऐसी विचित्र होती है। बेटा क्या मानो, जिन्होंने अपने शरीर का मोह नहीं किया। देखो हिरणी के बालक से कितना मोह हुआ? उसको कंठ से आलिंगन,उसका चुंबन करते रहते। उसको पुत्र की भांति पालन पोषण करते रहते हैं। मेरे प्यारे देखो, हिरनी के बालक को भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा देते रहते हैं। साक्लय मुनि महाराज श्वेतकेतु मुनि महाराज के पुत्र कहलाते थे और श्वेतकेतु मुनि महाराज की आयु बड़ी दीर्घ थी। देखो उनकी जो माता थी सोमवती वाचन उनकी जो माता थी। वह वरुणा वाचन नामकरण था। श्वेधा अपनी लोरियों का पान करा करके उसे यही शिक्षा देती है। बालक निर्वस्त्र बन जाए परंतु तू किसी से इच्छा प्रगट मत कर। माता की यह शिक्षा रही । श्वेतकेतु यही कहते रहे है,ब्रह्मचारी,राजा के राष्ट्र में अपने विचार के पान को प्रकट करो। अपने स्वार्थ के लिए स्वार्थपरता में नहीं आना चाहिए। पिता की भी यही शिक्षा, आचार्यों की भी यही शिक्षा रही, परंतु अपने जीवन काल में आकर मुनि महाराज ने पांच अनुष्ठान किए। 12 वर्षों के पांच अनुष्ठान, जिसमें दो अनुष्ठान उन्होंने याज्ञिक होने के लिए किए। देखो उनकी लगभग 400 वर्ष की आयु में किसी से कोई इच्छा अपने लिए प्रगट नहीं की। कितना त्याग और तपस्या में उनका जीवन रहा है।