मधुकर कहिन
उच्चारण की कठिनाई के चलते शाब्दिक आतंकवाद के शिकार हो चुके मुहावरों की दुर्दशा
नरेश राघानी
कल भीलवाड़ा से लौटते वक्त कुछ पत्रकार मित्र साथ बैठे थे। चर्चा चली भाषा ज्ञान पर। मित्र नेमीचंद तमोली भी मेरे साथ थे। जिनसे मुहावरों पर और उनके अर्थ पर चर्चा चल रही थी। तो मैंने मित्र नेमीचंद से पूछा की - भाई ! मैंने देखा है कि मुहावरों में कई मुहावरे ऐसे हैं जिनका शाब्दिक अर्थ समझें तो कई सवाल खड़े होते हैं। जैसे कि इन मुहावरों की उत्पत्ति कैसे हुई ?अर्थ और शब्दों का मेल कैसे हुआ?
जैसे कि धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का । यह मुहावरा वैसे तो किसी ऐसे व्यक्ति हेतु बोला जाता है जिसके लिए कोई विकल्प न बच गया हो।लेकिन इसको धोबी का कुत्ता क्यों कहा जाता है ? मैंने तो किसी भी धोबी को आज तक कुत्ता पालते देखा नहीं ... और फिर इसे धोबी से जोड़ कर ही क्यूँ कहा जाता है ? मेरा मित्र मुस्कराया और कहा कि - मेरे भाई ! यह शाब्दिक आतंकवाद सी दुर्घटना है। इस मुहावरे का जन्म हुआ तो बिल्कुल सही तुलना से है। लेकिन शब्द बदल गए हैं। यही वजह है कि इसमें कुत्ता घुस गया हैं।
पुरातन काल में जब धोबी किसी के भी घर जाते थे। तो उसी घर के आस-पास किसी भी पेड़ की बड़ी सी लकड़ी तोड़कर एक सोटा बनाया जाता था। जिससे उस घर के कपड़े घाट पर ले जाकर धोए जाते थे। इस सोटे को कुतका कहा जाता था। जब कपड़े धो लिए जाते थे तो धोबी वह कुतका घर के बाहर ही किसी झाड़ी में छोड़कर वापस अपने घर लौट आता था। दूसरे दिन सुबह जब कपड़े धोने होते थे , तो वहीं कुतका वहां से फिर उठाकर कपड़े घाट पर ले जाकर धोए जाते थे। यह कुतका धोबी अपने घर नहीं ले जाता था। अब इसके पीछे क्या कारण था ? वह तो इससे आगे का विषय है। परंतु उस सोटे कि आवारगी और तिरस्कार को ही लोगों ने मुहावरे के रूप में प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। और किसी की भी ऐसी ही विषम परिस्थिति को उस सोटे से जोड़कर परिभाषित करना शुरू कर दिया गया। तो कहावत दरअसल यह है कि धोबी का कुतका (सोटा) घर का न घाट का। काल चक्र के चलते चलते यह कुतका शब्द उच्चारण की कठिनाई के चलते कुतका से कुत्ता हो गया। और लोग आज तक भी बिना सोचे समझे, इसे धोबी का कुत्ता बोलते हैं।
ऐसी शाब्दिक दुर्घटना एक और कहावत के साथ भी है । जो कि बहुत मशहूर है। वह है - अक्ल बड़ी या भैंस ?
अब इसे यदि शाब्दिक तौर पर आप सोचें, तो अक्ल आपके दिमाग में बसे छोटे से मास के लोथड़े में है। और भैंस का साइज मेरे ख्याल में यहां सब जानते हैं। अब भैंस की तुलना अक्ल से करना तो वाकई समझ से बाहर है। तो साहब ! यह शब्द भैंस नहीं बेंस है। जिसका शाब्दिक अर्थ है आपकी आयु की मौजूद अवस्था । क्योंकि उम्र आप उस काल को कहेंगे जो कि आपके जन्म समय से लेकर मृत्यु के समय तक की समय अवधि है। इस पूरे काल को उम्र कहा जायेगा। जो कि मृत्यु उपरांत ही निर्धारित की जा सकेगी।
मतलब यदि किसी जीवित व्यक्ति से आप पूछें कि आपकी उम्र क्या है ? तो वह शाब्दिक तौर से गलत होगा। इसी वजह से किसी जीवित व्यक्ति की आयु पूछने के वक़्त बेंस शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। बड़े बूढ़े पूछते थे कि आप की बेंस क्या है । यानी कि आपकी इस वक़्त आयु अवस्था क्या है ? सीधे अर्थों में इसका मतलब यही है कि आप की मौजूदा आयु क्या है ? तो कहावत दरअसल यह है भाई !
अक्ल बड़ी या बेंस? - अर्थात अक्ल बड़ी या मौजूदा आयु?
निश्चित तौर पे अक्ल बड़ी है । क्योंकि बुद्धिमता की कोई आयु नहीं होती। कोई भी कम आयु में ज्यादा बुद्धिमान हो सकता है और कोई भी दीर्घायु होते हुए भी बुद्धिविहीन।
काल और बेंस शब्द के उच्चारण में आने वाली कठिनाई के चलते यह शब्द भी शाब्दिक आतंकवाद का शिकार हो गया है। और लोग बिना सोचे समझे आज भी इसे बस आंखें मूंदकर अकल बड़ी या भैंस कहते हैं।
वकाई यह एक ऐसी जानकारी थी जिससे मैं आज तक इतने लेखन के पश्चात भी अनिभिज्ञ था। इस दुर्लभ जानकारी हेतु मैं पत्रकार मित्र नेमीचंद तमोली का हृदय से आभारी हूँ। इस ब्लॉग के माध्यम से यह जानकारी आप लोगों तक पहुँचा रहा हूँ। जिसके लिए नेमीचंद तमोली बधाई के पात्र है।