उपभोक्ता संरक्षण एक्ट-1986, उपभोक्ताओं के अधिकारों को पुष्ट करता है और जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर शिकायतों के निवारण का प्रावधान करता है। ये शिकायतें वस्तुओं की खराबी या सेवाओं के दोषपूर्ण होने से संबंधित हो सकती हैं। एक्ट व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों को अपराध के रूप में मान्यता देता है जिसमें किसी वस्तु या सेवा की क्वालिटी या मात्रा के संबंध में झूठी सूचना देना और भ्रामक विज्ञापन शामिल हैं।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस एक्ट के कार्यान्वयन में कई समस्याएं रही हैं। अनेक उपभोक्ताओं को एक्ट के अंतर्गत अपने अधिकारों की जानकारी नहीं थी। हालांकि उपभोक्ता मामलों की निपटान दर उच्च थी (लगभग 90%), लेकिन उनका निपटान होने में काफी समय लगता था। एक मामले को निपटाने में औसत 12 महीने लगते थे।4इसके अतिरिक्त एक्ट में उपभोक्ता और मैन्यूफैक्चरर के बीच के उन कॉन्ट्रैक्ट्स का उल्लेख नहीं था जिनकी शर्तें अनुचित होती हैं। इस संबंध में भारत के विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि एक अलग कानून लागू किया जाए और कॉन्ट्रैक्ट की अनुचित शर्तो से जुड़ा एक ड्राफ्ट बिल पेश किया।
1986 के बिल को संशोधित करने के लिए 2011 में एक बिल प्रस्तुत किया गया ताकि उपभोक्ता कॉन्ट्रैक्ट की अनुचित शर्तों के खिलाफ शिकायतें और ऑनलाइन शिकायतें दर्ज करा सकें। हालांकि 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ यह बिल निरस्त हो गया।1986 के एक्ट का स्थान लेने के लिए लोकसभा में उपभोक्ता संरक्षण बिल, 2015 पेश किया गया। बिल में कई नए प्रावधान प्रस्तुत किए गए जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं : (i) प्रॉडक्ट लायबिलिटी, (ii) अनुचित कॉन्ट्रैक्ट्स, और (iii) रेगुलेटरी निकाय का गठन। उपभोक्ता मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी ने इस बिल की जांच की और अप्रैल 2016 में अपनी रिपोर्ट सौंपी।[8] कमिटी ने निम्नलिखित के संबंध में अनेक सुझाव दिए : (i) प्रॉडक्ट लायबिलिटी, (ii) रेगुलेटरी निकाय (केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी) की शक्तियां और कार्य, (iii) भ्रामक विज्ञापन और ऐसे विज्ञापनों को एन्डोर्स करने वालों के लिए सजा, और (iv) जिला स्तर पर न्यायिक (एड्जुडिकेटरी) निकाय का आर्थिक क्षेत्राधिकार। 2015 के बिल का स्थान लेने के लिए जनवरी 2018 में उपभोक्ता संरक्षण बिल, 2018 पेश किया गया।