रजनीकांत अवस्थी
महराजगंज- रायबरेली। क्षेत्र के कैर गांव का इतिहास बड़ा ही गूढ़ और मार्मिक है। प्राचीन काल में कन्नौज के राजा जयचंद का अवध प्रांत में राज्य था। च्यूंकि, राजधानी कन्नौज होने के नाते यहां के सेनापति थे जिनका नाम कैमाशराय था और दिल्ली के राजा पृथ्वीराज के सेनापति का नाम चामुंडराय था। कैमाशराय और चामुंडराय में घनिष्ठ मित्रता थी। जयचंद्र नरेश ने जब अपनी कन्या संयोग्यता का स्वयंवर किया तो, पृथ्वीराज चौहान ने जयचंद नरेश की पुत्री संयोगिता को स्वयंवर से जबरन युद्ध में जीत कर उठा ले गए। इस दौरान दोनों राजाओं की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ युद्ध में पृथ्वीराज की सेना विजयी हुई। बताते हैं कि, इस युद्ध में हारना सेनापति कैमाशराय की कमजोरी थी। वह इसलिए कि, पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडराय ने इस योजना के बारे में कैमाशराय को पहले से ही बता दिया था, कैमाश राय की सेना और चामुंडराय की सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध लड़ा गया, लेकिन पूर्व योजनाबद्ध तरीके से कैमाशराय को यह युद्ध में हारना पड़ा। आपको बता दें कि, क्षेत्र के संभ्रांत वयोवृद्ध इतिहास की जानकारी से परिपूर्ण कैर गांव निवासी समर बहादुर पांडेय आगे बताते हैं कि, बाद में जब कन्नौज के राजा जयचंद्र को इस बाबत पता चला कि, उनके ही सेनापति छल किया गया और सेनापति के ही द्वारा रचाए गए खेल में उनकी पुत्री को स्वयंवर से पृथ्वीराज उठा ले गए हैं, तो उन्होंने अपनी सेना को कैमाशराय पर आक्रमण कर मृत्युदंड देने का आदेश दे दिया। प्राचीन काल में कैर गांव को यहां के सेनापति के नाम से कैमाशगढ़ के रूप में जाना जाता था और कैरेस्वर महादेव यहां के सेनापति कैमाशराव के इष्ट देवता थे। जब कन्नौज के राजा ने अपनी सेना को यहां आक्रमण के लिए भेजा तो, मृत्यु के भय से कैमाशराव ने अपने आप को बचाने के लिए किले में बने पीछे के दरवाजे से निकल कर दिल्ली चला गया और पृथ्वीराज के पास शरण ले ली। तत्पश्चात जयचंद्र ने किले को धाराशाही करवाकर मलबे में तब्दील कर यहां आबादी बसा दी और इस गांव का नाम कैमाशगढ़ से कायर रखवा दिया। इसलिए कि, यहां के सेनापति वीरता पूर्वक जयचंद की सेना से युद्ध ना करके कायरों की भांति पीछे के दरवाजे से भाग निकला था। जो कायर गांव के नाम से जाना जाने लगा।
समर बहादुर पांडेय आगे बताते हैं कि, मुगल काल में औरंगजेब के द्वारा मूर्ति को तोड़कर मंदिर को विध्वंस किया गया। जिसके निशान मूर्त में आज भी विद्यमान है। श्री पांडेय बताते हैं कि, औरंगजेब की सेना द्वारा मंदिर विध्वंस और मूर्ति पर प्रहार कर तोड़ने तक तो, भोलेनाथ चुप रहे लेकिन जैसे ही क्रूर सेना द्वारा गांव को लूटा जाने लगा तो, शंकर जी की कृपा से मंदिर के स्थान से [हाड़ा] जिन्हें बर्रौवा कहते हैं, निकले और अपने डंक़ों से प्रहार कर शाही पल्टन को नदी के पार खदेड़ दिया। इसके बाद मंदिर नष्ट हो गया।
बताते हैं कि, नवाबी हुकूमत में नवाबों के सिपहसलाहकार राजा मानसिंह {अयोध्या} हुए तो, उनके द्वारा पुन: मंदिर का भव्य निर्माण करवाया गया और शंकर जी की टूटी हुई मूर्ति को गांव के ही लोहार {विश्वकर्मा} ने ताम्रपत्र {तामा से} लगाकर जोड़ दिया जो मूर्ति में आज भी विद्यमान है। जिसके बाद भोलेनाथ ने स्वप्न में वरदान दिया कि, फालिस के मर्ज में मंदिर परिसर में लगे वृक्ष से लोहार परिवार का कोई भी सदस्य दवा जड़ी दे देगा तो रोगी का मर्ज ठीक हो जाएगा। तब से आज तक यह प्रथा चली आ रही है। जिससे दूरदराज से आने वाले लाखों रोगी लाभान्वित हुए है। जिनका नाम इस मर्ज से संबंधित लोहारों के यहां बने दस्तावेज में आज भी दर्ज है।
श्री पांडेय बताते हैं कि, नवाबी काल में जगन्नाथ नाम का एक वैश्य {बनिया} हुआ जो लखनऊ के डालीगंज में रहता था और पैतृक गांव कैर था। जब नवाबी काल में हिंदू मुसलमान राइट हुआ तो, उसे मारा गया जिसके बाद उसने शंकर जी की स्तुति की कि, अगर वह ठीक हो जाएगा तो, कैर गांव में स्थित शंकर जी के दर्शन करेगा। जिसके बाद भगवान भोलेनाथ की कृपा से धीरे धीरे वह पहले की भांति ठीक हो गया। तत्पश्चात उसने कैर गांव स्थित कैरेश्वर महादेव मंदिर का रंग रोगन भव्य जीर्णोद्धार कराया।
समर बहादुर पांडेय और क्षेत्रवासियों के मुताबिक यहां कैरेश्वर महादेव मंदिर प्रांगण में साल में दो बार कजरी तीज और शिवरात्रि को हवन पूजन के साथ भव्य मेला लगता है, जो अपने आप में अद्वितीय है। श्री पांडेय आगे बताते हैं कि, जगन्नाथ वैश्य {बनिया} द्वारा मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद अब इस मंदिर की देख देख मंदिर कमेटी सहित ग्रामवासी व ग्राम प्रधान रखते हैं जिनके द्वारा समय-समय पर मंदिर की रंगाई पुताई तथा मरम्मत का कार्य कराया जाता है। कैर की रक्षा करते हैं गांव के चारों तरफ विद्मान सात सतियों के चौरे कैर गांव निवासी समर बहादुर पांडे और ग्रामवासी बताते हैं कि, कैर गांव के चारों तरफ सात सतियों के चौरे विद्यमान हैं। जो सदैव गांव की रक्षा करते हैं। बताते हैं कि, कन्नौज के राजाजयचंद ने जब यहां आक्रमण किया तो कैमाशराव किले के पीछे वाले दरवाजे से भागकर दिल्ली में पृथ्वीराज के यहां शरण ली थी। जिसके फलस्वरूप उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिए गया। उस काल में सती प्रथा होने के कारण स्त्रियां अपने पति के मरणोपरांत उनके साथ सती हो जाया करती थी। जिनके चौरे गांव की सभी दिशाओं में विद्यमान है। जिनकी ग्राम वासियों द्वारा पूरे विधि विधान से पूजा अर्चना की जाती है जो फलीभूत होती है। यही सती के चौरे विपत्ति के समय गांव की रक्षा करती हैं। इस दौरान कैरेश्वर महादेव मंदिर समिति के प्रबंधक वासुदेव प्रसाद त्रिपाठी, अध्यक्ष नंदकिशोर त्रिपाठी, सदस्य महादेव प्रसाद त्रिपाठी, रामस्वरूप जायसवाल, रामाधीन विश्वकर्मा तथा जीर्णोद्धार फरवरी 2020 से दानदाता श्रीकांत त्रिपाठी, बाल किशोर त्रिपाठी, ग्राम प्रधान गंगाराम पासी, मास्टर माताफेर, महादेव यादव, राम अवतार, मास्टर प्रेम नारायण जायसवाल, चांदिका प्रसाद विश्वकर्मा, सिद्धनाथ तिवारी, साधु पासवान, राम बहादुर वा विद्यालय परिवार कैर, सुनील विश्वकर्मा, अखिलेश तिवारी, कालिका प्रसाद त्रिपाठी, पवन श्रीवास्तव, ज्ञानेंद्र, पूर्व प्रधान केदारनाथ जायसवाल, कौशल किशोर पांडेय, सुंदरलाल कोटेदार, रामदुलारे तिवारी आदि लोग मौजूद रहे।