गुवाहाटी। असम विधानसभा चुनाव में गठबंधन दलों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मुख्यमंत्री के चयन को लेकर आपसी खींचतान में फंसी हुई है। मतगणना के 6 दिन बाद भी भाजपा अपने मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा नहीं कर पा रही है। समय बीतने के साथ भाजपा दो गुटों में बंटी नजर आ रही है। पार्टी ने मुख्यमंत्री का नाम तय करने के लिए दिल्ली से दो पर्यवेक्षकों को असम भेजने का ऐलान किया है। लेकिन अभी तक पर्यवेक्षक असम नहीं पहुंचे हैं।
विधानसभा चुनाव के दौरान स्थानीय स्तर पर भाजपा ने मुख्य रूप से अपने वर्तमान मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के चेहरे के साथ ही तेजतर्रार और कद्दावर नेता डॉ हिमंत विश्वशर्मा को सामने रखकर प्रचार किया। चुनाव के आरंभ से ही स्थिति साफ होने लगी थी कि भाजपा एक बार फिर विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के बिना ही चुनाव मैदान में उतरेगी। मुख्यमंत्री के नाम को लेकर पार्टी सवालों को पूरे चुनाव टालती रही। मतगणना के बाद भी पार्टी की स्थिति कमोबेश यही कायम है।
ऐसे में कयासों का बाजार गर्म होने लगा है कि भाजपा इस बार असम में अपने मुख्यमंत्री का चेहरा बदल सकती है। पार्टी में साफ तौर पर सोनोवाल और डॉ विश्वशर्मा के दो धड़े दिखाई दे रहे हैं। हालांकि भाजपा का कोई शीर्ष नेता हो या अन्य नेता, कोई भी इस बात को कहने के लिए तैयार नहीं है कि राज्य की कमान किसके हाथों में सौंपी जाएगी। सभी नेता सिर्फ एक ही बात कहते नजर आ रहे हैं पार्टी की केंद्रीय कमेटी जो निर्णय लेगी, उसको सभी स्वीकार करेंगे।
अंदरूनी तौर पर देखा जाए तो चुने हुए विधायक कहीं न कहीं दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं। भाजपा से जुड़े कुछ संगठनों के वरिष्ठ नेताओं ने इशारों-इशारों में इस बात का संकेत किया है कि संभवतः राज्य की कमान इस बार डॉ. हिमंत विश्वशर्मा को सौंपी जा सकती है। इसके लिए पार्टी के अंदर एकराय बनती नजर आ रही है। जबकि सर्वानंद सोनोवाल को फिर से केंद्रीय कैबिनेट में स्थान दिया जा सकता है। हालांकि खुले तौर पर इस बात को कोई कहने के लिए तैयार नहीं है। वैसे दूसरी ओर सर्वानंद सोनवाल ने भी मुख्यमंत्री की गद्दी की लड़ाई को अभी तक छोड़ा नहीं है। चुनाव नतीजे आने के बाद भी अभी तक पुरानी सरकार भंग नहीं हुई है। अमूमन चुनाव परिणाम आने के दिन या दूसरे दिन पुरानी सरकारी इस्तीफा दे दिया करती है।
न सिर्फ राज्य की जनता में बल्कि, भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी नए मुख्यमंत्री की घोषणा को लेकर काफी उत्सुकता दिखाई दे रही है। इधर, गैर-भाजपा दलों में भी इस बात की उत्सुकता बनी हुई है कि सोनोवाल और डॉ विश्वशर्मा के बीच आखिर मुख्यमंत्री का उम्मीदवार पार्टी द्वारा कौन बनाया जाता है।
कांग्रेस, एआईयूडीएफ, बीपीएफ आदि दलों में भी तोड़फोड़ को लेकर हड़कंप मचा हुआ है। विपक्षी दलों के बीच ऐसी आशंकाएं देखी जा रही है कि कहीं मुख्यमंत्री बनने के लिए विधायकों की संख्या दिखाने के लिए उनकी पार्टियों में तोड़फोड़ हो सकती है।
अपुष्ट सूत्रों का कहना है कि चुनाव से पूर्व विपक्षी दलों के कई विधायकों को चुनाव में टिकट प्राप्त करने और फिर चुनाव खर्च के लिए भाजपा नेताओं द्वारा सहायता दी गई थी। वहीं, नई बनने वाली सरकार में अच्छे पद का लोभ देकर विपक्षी विधायकों को तोड़े जाने की संभावना से कोई भी इनकार नहीं कर रहा है।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि असम की राजनीति में ऊपरी असम और निचले असम को लेकर हमेशा ही प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। राज्य के प्राख्यात कांग्रेस नेता डॉ भूमिधर बर्मन तथा सैयदा अनवरा तैमूर के अलावे आज तक निचले असम का कोई भी नेता मुख्यमंत्री नहीं बन सका। ऊपरी असम की एक लॉबी है जो फिर से सर्वानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री बनाने पर तुली हुई हैं। जबकि, पार्टी के अंदर और विधायकों के बीच डॉ. विश्वशर्मा अधिक लोकप्रिय हैं। राज्य की जनता के बीच भी सोनोवाल हिमंत की तुलना में अधिक लोकप्रिय नहीं हैं। यही वजह है कि उनके मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए भी भाजपा द्वारा बगैर मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव लड़ा गया।
चुनाव के लिए आर्थिक प्रबंधन से लेकर टिकटों के बंटवारे तथा अन्य दलों के साथ गठबधन के मुद्दे पर सोनोवाल के मुकाबले भाजपा द्वारा हिमंत को अधिक तरजीह दी गयी। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने बताया कि मुख्यमंत्री के मुद्दे पर डॉ. विश्वशर्मा की राहों में सोनोवाल खेमा द्वारा यह कहकर रोड़ा अटकाया जा रहा है कि पार्टी के प्रति हिमंत की वफादारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। जिस कांग्रेस पार्टी ने हिमंत को अपना सर्वेसर्वा बना रखा था, वहीं हिमंत कांग्रेस को दगा दे गए। हिमंत के इस चरित्र से भाजपा को सावधान रहना चाहिए। वहीं, दूसरी ओर हिमंत के पक्ष में पार्टी के लोगों का यह कहना है कि हिमंत ने कांग्रेस को अपना सब कुछ दिया था, बावजूद इसके जब कांग्रेस ने उन्हें अपमानित करना शुरू कर दिया तब उन्होंने कांग्रेस को सबक सिखाए। अन्यथा दोबारा और फिर तीसरी बार कांग्रेस को सत्ता में लाने का श्रेय हिमंत को ही जाता ।
पार्टी से बगावत सोनोवाल ने भी किया था। असम गण परिषद ने सोनोवाल को जमीन से उठा कर सीधे सांसद बना दिया था। पार्टी में उन्हें अपमानित भी नहीं किया। बावजूद इसके जब पार्टी के लिए कुछ करने का समय आया तो सोनोवाल भाजपा में आ गए।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यदि पार्टी के प्रति वफादारी की कसौटी पर कसा जाए तो असम ही नहीं, पूर्वोत्तर में भाजपा के नेताओं की संख्या नगण्य हो जाएगी। आज की राजनीति में वही शामिल होते हैं, जिनकी कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं होती हैं। ऐसे में यदि राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए नेता दल-बदल करते हैं तो देश की जनता उन्हें नकारती नहीं है। यह बात देश में अनेक बार साबित हो चुकी है। ऐसे में इस आधार पर हिमंत को भाजपा दरकिनार नहीं कर सकती है। विभिन्न तरीके से पार्टी के अंदर मुख्यमंत्री पद को लेकर खींचतान चल रही है। पार्टी के कार्यकर्ता मानते हैं कि शीघ्र ही पार्टी नए मुख्यमंत्री की घोषणा कर देगी।