पतित-पावन 'उपन्यास'
गतांक से...
गुरुजी के पीछे कल्पना चुपचाप दबे पांव चल पड़ी। कल्पना के पीछे स्वराज भी चलने लगा। कल्पना बुद्धिमान तो थी परंतु उसकी चंचलता कभी-कभी उसे आवारा बना देती थी। किसी भी बात पर विश्वास करना, किसी पर भी विश्वास करना, उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। परिणाम चाहे जो भी रहे, इसकी वह कभी परवाह नहीं करती थी। इसके विपरीत यह बात भी ठीक है गरीबी-अमीरी मे ज्ञान समान रूप में नहीं रहता है। कभी-कभी दौलतमंद मंदबुद्धि हो जाते हैं और कभी कभी मंद दौलत बुद्धिमान हो जाते हैं। इसी कारण यह बात चरितार्थ होती है। बल, बुद्धि, रूप और विद्या यह ईश्वरीय देन है। ईश्वर जिसको जैसे निर्मित करता है। वह इस संसार में उसी रंग, रूप, बल, बुद्धि के साथ विचरण भी करता है। ठीक उसी प्रकार यदि कल्पना को साफ-स्वच्छ वस्त्र और व्यवहार के साथ-साथ रहन-सहन का ढंग बताया जाता, तो वास्तव में जया और कल्पना में किसी प्रकार की असमानता न में होती। लेकिन इसके विपरीत कल्पना के चारों ओर दुख-दुविधा और असुविधा ही थी। जिसका सामना करना उसके लिए दुर्गम और कठिन था। लेकिन उसके सम्मुख एक आदर्श के रूप में कल्पना अच्छे ढंग से जीना भी चाहती थी। पढ़ना लिखना उसे बहुत अच्छा लगता था। किंतु इन सब के बीच में एक बहुत बड़ी रुकावट थी। वह रुकावट थी उसकी परिवारिक निर्धनता, परिवार की आर्थिक स्थिति उसे ऐसा करने के लिए विवश कर रही थी। जिसके कारण उसके विचार और कामना दोनों ही दम तोड़ रहे थे। लेकिन कल्पना व्यक्तिगत रूप से निर्णय करने में सक्षम थी और उनके पालन का दायित्व भी निर्वाह करने का सामर्थ रखती थी। इसी कारण कई महीनों तक जया के साथ कल्पना की पढ़ाई-लिखाई चल रही थी। कई महीनों में कल्पना काफी कुछ सीख गई थी वह पढ़ाई और खेत के कामों में इस प्रकार का सामजस्य बनाए हुए थी कि किसी को यह महसूस भी नहीं होता था। कल्पना पढ़ाई के साथ-साथ अपने दैनिक कार्य भी बखूबी कर रही है। पानी भरते समय अपने अध्याय का अभ्यास किया करती थी। खेत में जाते समय रास्तों में पेड़ पौधे और फूल-कलियों से बात करते हुए उसका अध्ययन जारी रहता था। इस लग्न शीलता को देखकर सभी प्रश्रमिक कल्पना के व्यक्तित्व से अभिभूत हो गए थे। अकारण ही सब कल्पना का सम्मान करते थे और स्नेह पूर्ण व्यवहार के कारण कल्पना दिन पर दिन निखर कर रही थी। सरसों के फूल गिन-गिन कर कल्पना ने गिनती याद कर ली थी। पगडंडिया नापते-नापते उसने बहुत सारे पहाड़े भी याद कर लिए थे। अब उसे अक्षरों का भी ज्ञान हो चुका था। जया भी जान चुकी थी कि कल्पना ने अल्प समय में इतना सब कुछ कैसे सीख लिया? हालांकि कल्पना की सामर्थ शक्ति का जया को आभास था। इसी कारण जया सोच रही थी यदि कल्पना की शिक्षा-दीक्षा, नीति-नियम के समय अनुसार होती तो कल्पना एक होनहार छात्रा बन जाती।
कल्पना औरजया दोनों कई दिनों के बाद गूलर के पेड़ के नीचे बैठे बात कर रहे थे।
कल्पना ने अति भावुक होकर गंभीरता से कहा- जया तुम यह पेड़ देख रही हो, इस पेड़ पर हरे पत्तों के बीच में कहीं-कहीं पीले रंग के भी पत्ते हैं। जो पत्ते पक जाते हैं उन का रंग पीला पड़ जाता है और हल्के से झौके के साथ वह पत्ते पेड़ की शाखा से अलग हो जाते हैं। फिर पता नहीं वह पत्ते कहां जाते हैं उनका क्या होता है? क्या ये हमें कुछ समझाने का प्रयास कर रहे हैं ?
जया आश्चर्य से बोली- मैं कुछ समझी नहीं हूं। तुम क्या कहना चाहती हो और किस बात को समझाने का प्रयास करते हैं?
कल्पना ने उसी मुद्रा में कहा सीधी सी बात है एक ही शाखा पर कई पत्ते उग जाते हैं। उनके रंग अलग-अलग हो जाने पर हरे पत्तों को शाखा कभी जुदा नहीं करती है और पीले पत्तों को वह अपने साथ रहने नहीं देती है। ऐसा क्यों होता है?
अब जया को भी गंभीर हो चली थी उसने पेड़ की तरफ निहारा और बोली- तुम सही कह रही हो, यदि किसी का मिलना होता है तो उसका अलग होना भी तय होता है। यदि किसी ने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित ही है। इसी प्रकार यह पत्ते की मृत्यु ही समझी जाएगी।
कल्पना ने उसी मुद्रा में कहा- मुझे लगता है मैं तुम्हारा संग पाकर बदल गई। अब मेरे मस्तिष्क में बहुत सारी इच्छाएं भी पनप रही है। मैं अपनी कमियां और स्थिति को महसूस कर सकती हूं। लेकिन उसके बावजूद भी उमंग और तरंगों का एक नया सैलाब मेरे हृदय में मचल रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है मैं तुम्हारा संग पाकर बहुत बदल गई हूं। कभी-कभी तो सोचती हूं तुम्हारी और मेरी किसी भी प्रकार, कहीं भी कोई समानता नहीं है। तुम धन संपन्न प्रसिद्ध परिवार की लड़की हो, मैं निर्धन गरीब परिवार में रहने वाली। तुम पढ़ी-लिखी शिक्षित हो और मैं तुम्हारे सामने बिल्कुल गवार हूं। तुम कितनी साफ स्वच्छ रहती हो मैं कितनी मैली कुचली रहती हूं। इसी कारण कभी-कभी लगता है कि मैं तुम्हारी दोस्ती के लायक नहीं हूं।
जया ने मुस्कुरा कर कहा- पगली दोस्तों के बीच कोई मान-अपमान और समानता-असामानता नहीं होती है। हम दोनों ही इंसान हैं और मैं तुम्हारे लिए केवल तुम्हारी एक दोस्त जया हूं। केवल दोस्त और कभी भी इस प्रकार के विचार अपने मन में मत लाओ। मित्रता इस संसार के सब संबंधों से अलग एक ऐसा संबंध है। जो मान-मर्यादा, ऊंच-नीच, जात-पात, रुतबा-रवैया, रिवाज सबसे अलग, सबसे ऊपर है। जिसमें कोई लोभ-लालच और स्वार्थ नहीं रहता है। बिल्कुल साफ स्वच्छ गंगा-जल की तरह मित्रता ही सबसे पवित्र रिश्ता है। जिसमें विशेष संबंध न होने के बाद भी मनो का बंधन बना रहता है। ऐसा बंधन है मित्र का।
कल्पना दुखी सी होकर बोली- हम नीची जाति से हैं और हमेशा सब प्रताड़ित करते रहते हैं। कोई सभ्यता के साथ, सम्मान के साथ उनसे बात नहीं करता है और फिर तुम मुझे मित्र किस प्रकार समझती हो? क्या तुम्हें लगता है कि मैं कभी तुम्हारे किसी काम आ सकूंगी? मुझे तो ऐसा नहीं लगता है कि मैं कभी तुम्हारे किसी काम आ सकूं। बल्कि मैं तो यह भी समझती कि मैं तुम्हें कभी किसी प्रकार की शांत्वना भी ना दे सकूं। हां इतना जरूर जानती हूं मैं हमेशा तुम्हारे लिए संकट और बाधा ही साबित रहूंगी। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है तुम मुझे अपनी मित्रता से अलग कर दो। मैं इसी योग्य हूं। तुम इस योग्य हो तुम बहुत कुछ कर सकती हो। तुम्हें ईश्वर ने देवी के जैसा स्वरूप दिया है। मैं तो एक दुखी हूं अच्छी लड़की की मेरी अहमियत नहीं है।
जया उठकर अपने कपड़ों को झड़ते हुए बोली- सौ का तोड़ एक ही है।
( जैसे जया ने कल्पना का अभिप्राय समझ लिया था) कल्पना बैठे-बैठे ही बोली- पता है कभी-कभी अपनी बहनों को देखकर सोच लेती हूं। काशः मेरी बहने पढ़ती-लिखती, साफ-सुंदर रहती। जानती हो क्यों? क्योंकि जब से तुम्हारा साथ मिला है तुम्हारे संग का असर मेरे सर पर सवार हो गया है। जबकि मैं जानती हूं कि यह संभव नहीं है। लेकिन मैं फिर भी सोचती हूं और असफल हो जाती हूं। बेकार में ही इस प्रकार के विचार आते हैं और हताश होकर चले जाते हैं।
जया कौर ने स्नेह पूर्ण सहानुभूति पूर्वक कहा- सुनो तुम्हें व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है। दूसरी सबसे विशेष बात यह है कि हम दोनों मित्र हैं और मित्र एक दूसरे के दुख-सुख के साथी होते हैं। यहां-वहां की बातें ना किया करो। अगर तुम्हें लगता है कि मेरी और तुम्हारी मित्रता में कहीं कोई समस्या है। इससे तुम्हें कष्ट होता है। परंतु मित्रता मन से होती है जिसे हम चाह कर भी तोड़ नहीं सकते। तुम बुद्धिमान हो और अच्छे-बुरे को अच्छे से समझती हो। यही बात मुझे बहुत अच्छी लगती है और तुम्हें मुझ पर विश्वास रखना चाहिए। हां अपनी इच्छाओं को भी सीमित रखना चाहिए। क्योंकि किसी से भी अगर तुम्हें बराबरी करनी है तो सद्गुणों की करो। ऐसे ही किसी प्रकार की होड करना अनुचित है और इस प्रकार के मनुष्य खोखले होते हैं। जो किसी भी प्रकार की होड़ में हिस्सा ले लेते हैं। जिनमें आत्मविश्वास होता है वे लोग जो चाहे वह पा सकते हैं। आत्मविश्वास मनुष्य का सबसे बड़ा साथी है और मुझे लगता है किसी ने तुम्हें मेरे खिलाफ भड़काया है। और मैं तुम्हारी इस चिंता को भी दूर किये देती हूं। अभी जल्दी ही पढ़ाई के लिए 5 वर्षों के लिए मैं मेरठ जा रही हूं। वहीं पर रहना, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना सब वहीं पर होगा।
कृतः- चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'