पतित-पावन 'उपन्यास'
गतांक से...
अचानक दोनों एक दूसरे के सामने आकर ठहर जाती है। दोनों ही एक दूसरे से कुछ कहना चाहती है, लेकिन दोनों ही कुछ भी नहीं कह पाती है। कुछ समय दोनों एक दूसरे को विचार पूर्ण भाव से देखती रहती है।
शांति को भंग करते हुए जया ने विचार पूर्ण ही कहा- तुम्हें तितलियों से डर नहीं लगता? क्या तुम्हें काटती नहीं है? इनके काटे का तुम्हें मंत्र याद है? कल्पना भाव विभोर-सी बोली-जी नहीं, मैं तितलियों के कांटे का मंत्र तो नहीं जानती, लेकिन इतना जरूर जानती हूं। तितलियों के काटने के लिए ना तो दांत होते हैं ना कोई डंक होता है। ये तो रंग-बिरंगी, मनचली तितलियां है। प्यारी-प्यारी नाजुक तितलियां। जया ने अनभिज्ञता से ही कहा- तुम कल्पना हो?
कल्पना ने भी आश्चर्य से कहा- तुमको मेरा नाम पता है?
जया ने विनम्रता से कहा- अभी मेरी मां ने बताया था।
कल्पना हिचककर बोली- तुम जया हो, मैं जानती हूं। पर तुम तो कभी खेत में नहीं आती हो। आज कैसे आना हुआ?
जया भावुकता से बोली- मुझे पता होता कि इतनी सारी खुशियां, इतना सुंदर खेल, इतना खुलापन, इतनी आजादी, इतनी मस्ती, तुम अकेले यह सब लूट रही हो। मैं कभी तुम्हें अकेले नहीं लूटने देती। यह सारी खुशियां अपने दामन में समेट लेती और हां कभी चूकती नहीं। खैर, अब तो हमें भी खबर हो गई है। लेकिन इन भंवरो को, तितलियों को और मधुमक्खियों को बता दो कि अब एक नहीं, दो लुटेरे आ पहुंचे।
दोनों खिलखिला कर हंस पड़ी, बहुत सारी बातें होने के बाद अब दोनों एक दूसरे से चित परिचित हो गई थी और एक दूसरे को समझने का प्रयास भी कर रही थी। कुछ समय बाद कल्पना को उसके पिताजी ने बुला लिया। जया सरसों के पीले खेत में उस समय फूलों के साथ अटखेलियां करती रही।
आज भी बड़ी जद्दोजहद के बाद आने दिया है। अब तो हम रोज पकाएंगे और खाएंगे। चलो दोनों तितलिया पकड़ते हैं।
कल्पना संकोच से बोली- पहले बताओ ये सूट-सलवार कहां से लिया है और कितने का लिया है? कितनी अच्छी कढ़ाई है इस पर? जया दया भाव से बोली- तुम्हें पसंद आ गया है तो तुम पहन लो,कीमत से क्या मतलब है? तुम घर पर क्यों नहीं आती हो, घर पर भी आओ तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा। वैसे ये सूट-सलवार मेरे पिताजी बता रहे थे ₹7 का आया है।
कल्पना ने ख्यालों से बाहर आकर कहा- मेरे बाबू मेरे लिए भी लाएंगे,पर वो सुबह ही मुझे अपने साथ खेत में ले आता है। बहुत काम करवाता है। कभी घास कटवाता है, कभी बाड़ी के फूल बिनवाता है। मेरी कमर में भी कभी-कभी दर्द होने लगता है। मैंने तो कई बार कहा भी है सुनता कौन है? बापू कहते हैं पांच बहने है। मैं अकेला क्या करूं? मेरी मां भी तुम्हारे घर पर रोटी टुकड़े का काम करती है जो बचता है उसको बटौर ले आती है। मेरे बापू बहुत अच्छे हैं, मेरी मां मुझसे बहुत प्यार करती है। हम पांचों बहनें शाम को बैठकर बहुत सारी कहानियां सुनते हैं और खूब मजे करते हैं। तुम भी कुछ कहो, क्या मैं ही बोलती रहूंगी?
जया ने गंभीरता से कहा- मैं क्या कहूं?
कल्पना ने खीजकर कहा- बहुत बोलती हूं, सब कहते हैं। जानती हो हम गेहूं की रोटी नहीं खाते हैं। सुबह चने की रोटी हरी मिर्च की चटनी के साथ और दोपहर को भी चटनी रोटी खाते हैं। मेरी सारी बहनें मुझसे छोटी है, इसी कारण मुझ पर काम का भी बहुत ज्यादा दबाव रहता है।
जया हमदर्दी से बोली- कल से तुम्हें फुर्सत ही फुर्सत होगी। कल से तुम्हें यह भारी काम नहीं करना पड़ेगा। तुम्हारा बापू कहां है? कल्पना ने हाथ से इशारा करते हुए घबराकर कहा- वह सामने मिट्टी खोदकर मेंढ़ बना रहा है ना हमे पढ़ाता है ना लिखाता है। मुझे पढ़ने का बहुत शौक है। लेकिन हम गरीब है इसलिए हम पढ़ नहीं सकते।
जया गंभीर हो कर बोली- तुम्हारे बापू की अभी खबर लेती हूं।
जय रतिराम के पास गई और गुस्से में बोली- तुम अपनी लड़कियों को पढ़ाते क्यों नहीं हो? रतिराम हड़बड़ा कर बोला- इतनी औकात कहां है। 12:00 बजे तक काम करने पर 5 शेर गोचनी मिलती है एक गुड़ की भेली और एक वक्त की रोटी मिलती है। इतने में क्या-क्या हो सकता है? दो शेर तो रोज घर में ही लग जाता है।
जयापुर आश्चर्यचकित होकर बोली-क्या दो शेर अनाज बस, इतनी मेहनत करके। यह तो मजदूरों के साथ ज्यादती की जा रही है। जय का लहजा़ सख्त हो चला था। कल से आपको दोगुना मेहनताना मिलेगा। अगर तुम्हें नहीं मिलता तो काम मत करना। एक-दो दिन भूखा रहना पडे तो रह लेना। अगर मिले तो काम करना और अपने सभी साथियों से भी कह दो। यदि कोई नहीं मानता है उसको मार-मार कर भरता बना दो। वैसे भी तुम जीते नहीं हो, दो शेर अनाज के लिए चार शेर पसीना बहाने के बाद तो दो शेर अनाज मिलता है। क्या तुम्हारी आत्मा तुम्हें धिक्कारती नहीं है। तुम्हें तुम्हारे होने का कोई एहसास नहीं है। यदि तुम्हारे एहसास मर चुके हैं तो फिर तुम्हारे जीवन जीने का कोई फायदा नही है।अपने परिवार का दायित्व पूर्ण रूप से नहीं निभा पा रहे हो तो तुम्हारे दायित्व का क्या अभिप्राय है। तुम्हारा होना, ना होना' इससे क्या फर्क पड़ता है? इस जीने से मर जाना बेहतर है।तुम्हारे बदन पर कपड़े हैं? और जो भी हैं। इससे तो कपड़े ना पहनो, यदि कोई कुछ कहेगा तो कहना कि मैं गरीब हूं ऐसे ही रहूंगा। अपने बच्चों को तुम पढ़ा नहीं सकते हो। फिर बच्चे पैदा क्यों करते हो? गलूरी के साथ माधुरी भी बातें चुपचाप सुन रहे थे। किसी ने चूं तक न की थी। जया बोलती जा रही थी- एक साबुन की टिक्की तुम ला नहीं सकते,बच्चे तुम पढ़ा नहीं सकते, घरों में तुम्हारा चूल्हा जलता नहीं है। कपड़े नहीं पहन सकते हो तो तुम्हारे होने का क्या आधार है? किस लिए जी रहे हो, तुम्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। तुम्हारे जीने का कोई महत्व ही नहीं है। जाओ यहां से चले जाओ और यहां जब आना तुम, जब तुम्हें उचित मजदूरी मिले। अगर तुम्हारी रोजमर्रा की जरूरत के सामान भी तुम्हें नहीं मिल पा रहे हैं तो इस मजदूरी का क्या फायदा? इस मेहनत का क्या फायदा है? तुम्हारा सब कुछ बेकार है।
उसी क्रोधित मुद्रा में कल्पना को कहा- कल से तुम शाम को 4 बजे कोठी पर आना। कल से तुम्हारी पढ़ाई शुरू होगी।
माधुरी क्रोध में बोली- क्या कह रही हो जया?
जया शालीनता से बोली-मां आपने जो साड़ी पहन रखी है 25 -30 रूपये की होगी। ये लोग रोज मजदूरी करते हैं खेतों में काम करके हमें सब कुछ दे रहे हैं। कहीं तो समानता होनी चाहिए। इंसान से इंसान इतना अलग, इतना अंतर रखता है। जानती हो ये लोग अपने पसीने से मिट्टी को गिली करके मेंढ़ बांधते है और आटा गूंथने के लिए इन्हें हमारे कुंए से पानी लाना पड़ता है। कैसा जीवन जी रहे हैं लोग?
कृतः- चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भय-पुत्र'