लिमटी खरे
देश भर में अनेक स्थानों पर सरकारी अस्पतालों में अचानक ही बड़ी तादाद में बच्चों की मौतों से व्यवस्थाओं पर सवालिया निशान लग रहे हैं। सियासी दल इसके मूल में जाकर कारण खोजने के बजाए आरोप प्रत्यारोपों के जरिए अपनी रोटियां सेंकते दिख रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट को अगर सच माना जाए तो देश में उचित इलाज के अभाव, कुपोषण और दीगर कारणों से हर साल तकरीबन आठ लाख बच्चे काल के गाल मे समा जाते हैं। एक अन्य एजेंसी की रिपोर्ट यह बता रही है कि देश में तीन बच्चे हर दो मिनिट में ही दम तोड़ देते हैं। सियासतदारों को विचार करना होगा कि आखिर क्या वजह है कि बच्चों के विकास के लिए करोड़ों अरबों रूपए पानी में बहाने के बाद भी बच्चों की मौतों का सिलसिला आखिर रूक क्यों नहीं पा रहा है! मजे की बात तो यह है कि निजि अस्पतालो में बाल मृत्यु दर बहुत ही कम है।
देश में केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा नवजात सहित दस साल तक के बच्चों के लिए तरह तरह की योजनाओं की मद में खजाने का मुंह लंबे समय से खोले रखा गया है, इसके बाद भी अगर लगातार ही शिशु मृत्यु दर कम नहीं हो रही है तो निश्चित तौर पर कहीं न कहीं गफलत अवश्य ही है। जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उनमें सरकारी अस्पतालों में ही बच्चों की मौतों की बातें ज्यादा सामने आ रही हैं। जाहिर है, सरकारी सिस्टम में कहीं न कहीं फफूंद लग चुकी है। देश के अनेक राज्यों में इस तरह की घटनाओं ने देश के लोगों को हिलाकर रख दिया है।
ज्ञातव्य है कि भारत गणराज्य के द्वारा 1992 में अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते को मानते हुए उसे न केवल अपनाया वरन उस पर हस्ताक्षर कर बच्चों के लिए अपनी प्रतिबद्धता भी उजागर की थी। जानकारों का मानना है कि बच्चे के जन्म के बाद पहले बीस दिन उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। अगर वह बीस दिन तक जीवित रह गया तो उसके बाद पांच साल तक की आयु तक का होने तक उसकी बहुत ज्यादा देखरेख की जरूरत होती है।
इस मामले में अगर वर्ष 2019 की यूनिसेफ की रिपोर्ट को देखा जाए तो एक साल में ही देश में लगभग साढ़े आठ लाख बच्चे असमय ही काल कलवित हुए हैं। इस आधार पर यह कहा जाए कि इक्कीसवीं सदी में भी देश में संसाधनों का अभाव और जिम्मेदारियों से बचने की भेड़ चाल चल रही है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देश में स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में ही अनेक गंभीर मानकों पर स्वास्थ्य सेवाएं फिसड्डी ही मिलती हैं।
देश में स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सक और पेरामेडिकल स्टॉफ की अगर बात की जाए तो आधे से ज्यादा लोगों के पास पर्याप्त योग्यताएं ही नहीं हैं। इन्हें समय समय पर दिए जाने वाले प्रशिक्षण में भी नहीं भेजा जाता या यूं कहें कि प्रशिक्षण दिया ही नहीं जाता है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। देश के अनेक चिकित्सक तो ऐसे हैं जिन्होंने अपनी पहुंच के दम पर सरकारी अस्पतालों में सेवाएं देने के स्थान पर स्वास्थ्य विभाग में ही अधीक्षण (सुपरविजन) वाले पदों पर प्रभारी बनकर अपना जीवन गुजार दिया। यदि उन्हें मरीजों के इलाज के लिए कहा जाए तो निश्चित तौर पर वे बगलें ही झांकते नजर आएंगे।
देश में 2013 में कोलकता में बीसी रॉय बच्चा अस्पताल में 122 बच्चों की जान गई तो 2017 में गोरखपुर के आयुर्विज्ञान महाविद्यालय में आक्सीजन की कमी के कारण साठ से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ा। इस तरह की घटनाएं देश भर में घटित होती रहती हैं। ग्रामीण अंचलों में घटने वाली घटनाओं के बारे में जानकारी न मिल पाने से ये चर्चाओं में नहीं आ पाती हैं। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है।
जब भी इस तरह की घटना घटती है तो सियासतदार सक्रिय हो जाते हैं। आरोप प्रत्यारोपों के दौर आरंभ होते हैं। जांच बिठाई जाती है। तृतीय या चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को बली का बकरा बनाकर उन्हें निलंबित कर दिया जाता है। देखा जाए तो जिस अस्पताल में यह घटना घटती है, उस अस्पताल के अधीक्षक को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। उस जिले में स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही की जाना चाहिए, पर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के खिलाफ कार्यवाही होने से यह संदेश जाता रहा है कि इस तरह की लापरवाही के बाद किसी चिकित्सक, सिविल सर्जन या विभाग प्रमुख का कुछ नहीं बिगड़ना है। ज्यादा से ज्यादा उसका तबादला कर दिया जाएगा। यही कारण है कि जिम्मेदार अधिकारी बेखौफ हो चुके हैं।
देश में हर साल न जाने कितने बच्चे इस दुनिया में आने के बाद पांच साल की आयु पूरा करने के पहले ही दुनिया को अलविदा कह जाते होंगे। अनेक प्रदेशों में जिला अस्पतालों में बच्चों के लिए गहन चिकित्सा इकाई (एसएनसीयू) की स्थापना की गई है। केंद्रीय शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में अरबों खरबों रूपए की इमदाद हर साल दी जाती है। इसका कोई हिसाब किताब लेने वाला नहीं है। केंद्रीय इमदाद से अस्पतालों में अधिकारियों की जमकर मौज रहती है। महंगे वाहन किराए पर लेकर, कार्यालय और घरों में इसकी राशि से वातानुकूलित यंत्र (एयर कंडीशनर) लगाने और अन्य तरह से इस राशि को जमकर खर्च किया जाता है।
केंद्र के द्वारा दी जाने वाली इमदाद के संबंध में कभी भी जिला स्तर पर जाकर केंद्रीय दलों ने वस्तु स्थिति नहीं देखी है कि उनके द्वारा दी जाने वाली राशि का क्या उपयोग हो रहा है। साल में एकाध बार पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के हिसाब से जांच दल जब आता है तो उसकी जमकर खातिरदारी की जाती है। जांच दल को सैर सपाटा करवाकर मंहगे उपहार देकर बिदा कर दिया जाता है। जबकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को चाहिए कि इसकी जांच के लिए वह एक जांच दल गठित करे जो औचक निरीक्षण कर वस्तु स्थिति की जांच करे और इसकी वीडियो ग्राफी कर, फोटो खींचकर मंत्रालय को इससे आवगत कराए, कि केंद्रीय इमदाद का उपयोग अस्पतालों में किस तरह किया जा रहा है।
मानवाधिकारों के हिसाब से स्वस्थ्य जीवन हर बच्चे का सबसे बड़ा और पहला अनिवार्य अधिकार है। मानवाधिकारों के नाम पर झंडा बुलंद करने वाले संगठनों के द्वारा भी कभी देश भर में बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर प्रदर्शन नहीं किए गए हैं। यह मामला चूंकि छोटे बच्चों से जुड़ा है और छोटे बच्चे नासमझ होते हैं, वे अपनी आवाज को कैसे बुलंद कर सकते हैं। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े मामले में न तो संसद में बहस होती है और न ही राज्यों की विधान सभाओं में ही इस बात को उठाया जाता है।
हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि बच्चों के स्वास्थ्य का मसला नेताओं के भाषणों का अंग बनकर रह गया है। नेताओं के द्वारा भाषणों में तो इस बात का जिकर किया जाता है पर लोकसभा, राज्य सभा, विधान सभाओं आदि सक्षम मंच पर यह बात उठाने में चुने हुए प्रतिनिधि पीछे ही रहते दिखते हैं।
देश में हर आदमी को स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाएं, वह भी निशुल्क यह देखना हुक्मरानों का दायित्व है। सरकारी सिस्टम का पूरा पूरा फायदा निजि चिकित्सकों और अस्पतालों के द्वारा जमकर उठाया जाता है। निजि तौर पर होने वाली चिकित्सा में मरीजों की जेब तराशी का काम चल रहा है और हुक्मरानों को मानो इससे कोई विशेष फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है। सियासतदार यह भूल जाते हैं कि बच्चे अगर स्वस्थ्य रहेंगे तो आने वाले दिनों में जब वे जवान होंगे तब देश का भविष्य बनेंगे। क्या देश का भविष्य इसी तरह से बिगड़ता हुआ ही देखना चाह रहे हैं देश के नीतिनिर्धारक।