रिश्तों का तराजू 'संपादकीय'
मैंने निभाया है हर रिश्ते को ईमानदारी से,
यकीन मानो कुछ नहीं मिलता इस वफादारी से।
अवतरण दिवस के बाद से ही रिश्तों की डोर में बंधा आदमी कदम-कदम पर अपने-पराये की अटूट श्रृंखला की कड़ी बनकर रह जाता है।
जीवन के अग्नि पथ पर हर लम्हा समर्पण भाव लिए स्वभाव के संरक्षण में अपनी निरन्तरता बनाएं रहता है। उम्र के गुजरते लम्हे धीरे-धीर जब परिपक्वता की परिधी में पहुंच जाते हैं, स्वयं की सम्वेदना निज हित को सर्वोपरि मानते हुए दिन रात सामाजिकता के आवरण को मजबूत कर इस स्वार्थी दुनिया के रस्मों रिवाज में अहर्निश सुख सम्पदा के उन्मोचन में सुख-चैन को त्याग कर, सुखद भविष्य की चाहत में खुद आहत रह कर भी
तरक्की की राह पर अपनों को अग्रसर करने के लिए हर दर्द को सह जाता है। बदलता परिवेश जिस विशेष वातावरण का निर्माण कर रहा है, उसमें तो एक निश्चित अवधि के पार होते ही जो कल तक अपने थे सपने कि बात बन जा रहे हैं।परिवर्तन की पराकाष्ठा देखिए साहब! आधुनिकता के इस अघोषित युद्ध में लोगों की मानसिकता जिस तरह प्रबुद्ध होने का एहसास करा रही है, वह भारतीय परम्परा भारतीय संस्कृति में कभी शामिल नहीं रही है।
इस देश में तो सदियों से मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: का सारगर्भित सम्मान सर्वोपरि रहा है।
मगर, इस भौतिक वादी युग में रिश्तों की अहमियत खत्म हो गई। डंकल प्रजाति के नए रिश्तों से समाज सम्बृध हो रहा है।पुरातन काल के सम्बन्ध जो पौराणिक अनुबन्ध पर कायम थे, अब विलुप्त हो चले हैं।आधुनिकता के प्रथम चरण में ही सामाजिक सम्बन्धों की परिभाषा बदल गई। अब वह परम्परा परिवर्तित हो गई, जिसमें शान से कहा जाता, जिस जाति धर्म में जन्म लिया, बलिदान उसी में हो जाए !
जननी जन्म भुमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ! खुशहाल जीवन के महकते उपवन में जिस दिन उर्वशी का आगमन हुआ, उसी दिन खुशी पर ग्रहण लग गया। रिश्ते दरकने लगा, घर परिवार खटकने लगा। उसमें भी अगर नौकरी है तो सोने में सुहागा। वह पथिक जो जीवन भर कठिन राहों पर अपनों के लिए नंगे पांव भटकता रहा, उसके नसीब में खुशी करीब आकर दूर चली गई, जिसके आसरे सारे ख्वाब सजाए थे, जीवन उस पर तुषारापात हो गया।
सम्बन्धों की तुरपाई जब मोहब्बत के धागे से होती है, तब जाकर अपनापन वजूद मुस्कराता है ।लेकिन आजकल तो एक नई व्यवस्था ने ऐसी आस्था को प्रतिपादित किया है, जिसके चक्रव्यूह में जो एक बार फंस गया, वह अपना समूल नाश कर मूल को भूल जाता है। जीवन की जगमगाती ज्योति को आंधियों के हवाले करने की नवसृजित परम्परा भारतीय संस्कृति को विनाश के तरफ ले जा रही है। विघटित होते संयुक्त परिवार एकाकी जीवन की संकल्पना का आधार बन रहे हैं। पुरातन भारतीय जीवन पद्धति अब कल की बात हो गई। घर विरान हो रहे है, अनाथ आश्रम तथा बृद्धा आश्रम आबाद हो रहे हैं। शहर से लेकर गांव तक बदल गए। हर तरफ गजब की उदासी है, हर तरफ गम जदा मंजर है। वैमनस्यता की देवी पूजी जा रही घर-घर है।
अब रिश्तों का तोल नहीं,
मां-बाप अनमोल नहीं।
आने वाला कल विकल भाव लिए एकल जीवन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
सबके करीब जाना,
मेरी मजबूरी तो नहीं।
हर ज़ख्म दिखाऊं, रोऊं...
ये जरुरी तो नहीं।
देख लिया है जीकर,
मैंने सबके लिए।
बिना मेरे ज़िन्दगी,
किसी की अधूरी तो नहीं।
जगदीश सिंह
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