अंटार्कटिका महाद्वीप में ग्लेशियर से निकल रहा ‘खून‘
डॉक्टर सुभाषचंद्र गहलोत
लंदन। दक्षिणी ध्रुव पर स्थिति अंटार्कटिका महाद्वीप में एक ग्लेशियर से ‘खून‘ निकाल रहा है। लाल रंग के इस बहाव को देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हैं। ये खून बताता है कि ग्लेशियर के काफी नीचे जिंदगी पनप रही है। ग्लेशियर का यह खून नमकीन सीवेज है, जो एक पुराने इकोसिस्टम का हिस्सा है। ब्लड फॉल्स जीवंत लाल पानी का एक झरना है जो विक्टोरिया लैंड, पूर्वी अंटार्कटिका में टेलर ग्लेशियर से निकलता है। दशकों तक इस अजीबो-गरीब नजारे ने इस दूर की घाटी तक पहुंचने में कामयाब रहे बहादुर खोजकर्ताओं को भ्रमित किया। पिछले कुछ दशकों में शोध से पता चला है कि अंटार्कटिका का यह छोटा टुकड़ा शायद पहले की तुलना में भी अजीब है।
खून के झरने यानी ब्लड फॉल्स की खोज सबसे पहले ब्रिटिश खोजकर्ता थॉमस ग्रिफिथ टेलर ने वर्ष 1911 में की थी। अंटार्कटिका के इस इलाके में यूरोपियन वैज्ञानिक सबसे पहले पहुंचे थे। शुरुआत में थॉमस और उनके साथियों को लगा था कि ये लाल रंग की एल्गी है, लेकिन ऐसा था ही नहीं। बाद में यह मान्यता रद्द कर दी गई। उस समय, टेलर और उनके दल ने सोचा कि जीवंत रंग लाल शैवाल के कारण है। हालांकि, यह बाद में गलत साबित हुआ। 1960 के दशक तक वैज्ञानिक यह दिखाने में सक्षम नहीं थे कि ब्लड फॉल्स का लाल रंग वास्तव में लोहे के लवण, या फेरिक हाइड्रॉक्साइड का परिणाम था, जिसे बर्फ की चादर से निचोड़ा जा रहा था।
2009 में, वैज्ञानिकों ने पाया कि टेलर ग्लेशियर से रिसने वाला लाल पानी एक खारे पानी की झील से निकलता है जो 1.5 से 4 मिलियन वर्षों से बर्फ में फंसा हुआ है। वास्तव में, यह झील अति-नमकीन झीलों और जलभृतों की एक बहुत बड़ी भूमिगत प्रणाली का सिर्फ एक हिस्सा है। ब्लड फॉल्स के पानी के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि नमकीन पानी के दबे हुए शरीर बैक्टीरिया के एक दुर्लभ सबग्लेशियल इकोसिस्टम का घर हैं। इसका मतलब है कि बैक्टीरिया प्रकाश संश्लेषण के बिना बना रहता है और संभवतः ब्राइन से साइकलिंग आयरन के माध्यम से खुद को बनाए रखता है।
इसके ऊपर, पानी हिमांक बिंदु से काफी नीचे होता है, जब यह ग्लेशियर से निकलता है तो इसका तापमान लगभग -7 डिग्री सेल्सियस (19.4 डिग्री फारेनहाइट) होता है। फिर 1960 में पता चला कि यहां ग्लेशियर के नीचे लौह नमक यानी आयरन साल्ट है। यह बर्फ की मोटी परत से वैसे निकल रहा है जैसे आप टूथपेस्ट से पेस्ट निकालते हैं। फिर साल 2009 में यह स्टडी आई है कि यहां पर ग्लेशियर के नीचे सूक्ष्मजीव हैं, जिनकी वजह से ये खून का झरना निकल रहा है। ये सूक्ष्मजीव इस ग्लेशियर के नीचे 15 से 40 लाख साल से रह रहे हैं। यह एक बहुत बड़े इकोसिस्टम का छोटा सा हिस्सा है। इंसान इसका छोटा सा हिस्सा ही खोज पाए हैं। यह इतना बड़ा है कि इसके एक छोर से दूसरे छोर तक की खोज करने में कई दशक लग जाएंगे। क्योंकि इस इलाके में आना-जाना और रहना बेहद मुश्किल है।
जब खून के झरने के पानी की जांच लैब में की गई, तो पता चला कि इसमें दुर्लभ सबग्लेशियल इकोसिस्टम के बैक्टीरिया हैं। जिनके बारे में किसी को पता नहीं है, ये ऐसी जगह जिंदा हैं, जहां पर ऑक्सीजन है ही नहीं। यानी बैक्टीरिया बिना फोटोसिंथेसिस के ही इस जगह पर अपना जीवन जी रहे हैं। इस जगह का तापमान दिन में माइनस 7 डिग्री सेल्सियस रहता है। यानी खून का झरना बेहद ठंडा है और ज्यादा नमक होने के कारण यह बहता रहता है, अन्यथा तुरंत जम जाता।
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