मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

व्रत 'संपादकीय'

व्रत     'संपादकीय'            

आर्यवृत राष्ट्र में सनातन संस्कृति में अध्यात्म का विशेष स्थान है। जिस प्रकार पूजा-अर्चना और पर्वों ने स्थाई रूप धारण कर लिया है। विभिन्न धारणाओं के कारण सनातन संस्कृति विविधताओं से परिपूर्ण है। इसी कड़ी में जगत आधार जग-जननी दुर्गा माता की निरंतर 9 दिनों तक विभिन्न रूपों की पूजा, नवरात्रें संपूर्ण देश में हर्षोल्लास के साथ मनाए जातें है। यह सनातन सभ्यता का अद्भुत विहंगम दृश्य है। इसी के साथ कई कुप्रथा भी फलने-फूलने लगी है। उत्सव के स्वरूप का अधिकांशतः भाग हुड़दंग में रूपांतर हो रहा है। प्रश्न यह है कि अध्यात्म से अशांत वातावरण का क्या संबंध हैं ?
अध्यात्म आत्मचिंतन का घोषक है। आत्म मंथन के उत्सव में बहुतायत में लोग उपवास रखते हैं। उपवास से शारीरिक संरचना को कई लाभ होते हैं। किंतु उपवास के पर्यायवाची व्रत का भाव दोनों शब्दों में परस्पर भेदभाव करता है। व्रत का भाव संकल्प के रूप में दृष्टिपात किया जाता है।
कोई निश्चय करने का निर्धारित समय नवरात्रों को मान लेना अनुचित नहीं होगा। व्रत की धारणा और अर्थ पर विचार करने की आवश्यकता है। पवित्रतम नवरात्रें निश्चय और संकल्प को व्रत के रूप में धारण करने की प्रेरणा और सर्वश्रेष्ठ स्रोत है।कल्याण कार्यों से विमुख, कदाचार, दूर्व्यसनों  को त्यागने का निश्चय किया सकता है। प्राकृतिक समस्याओं के विरुद्ध प्रक्रियात्मक संकल्प किया जा सकता है। सदाचार-उपकार और व्यवहार से जुड़े निश्चय कियें जा सकतें हैं। उपासना का स्वरूप सर्वदा निराकार है।
किंतु इसके विपरीत व्रत पूर्ण रूप से साकार है। शक्तिमान महाकाली, गोरी आदि रूपों में देवी प्रत्येक नवरात्रें का व्रत का पातन करने वाला सजीव उदाहरण प्रस्तुत करती है। संस्कृति और सभ्यता के विरुद्ध उत्पन्न होने वाले विकारों का नाश करती हैं। तपस्या, साधना और इच्छाशक्ति का दैविक उदाहरण देती है। संयम, दृढ़ता और त्याग के लिए प्रेरित करती है। सर्वशक्तिमान होने के बाद भी दया, क्षमा और उदारता का प्रतीक बनी रहती है। निश्चय के साथ किए गए संकल्प का सुरक्षित रूप से धारण और निर्वाह ही व्रत का वास्तविक स्वरूप है। व्रत धारण किए बिना कोई व्यक्ति शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। शक्ति का संचय और संचालन, दोनों स्थिति में व्रत धारण करना होता है। अध्यात्म का मुख्य द्वार व्रत है। यदि अध्यात्म से संबंध बनाना है, शक्ति का संचय करना, मानसिक, दैहिक और सभी क्षेत्र के विकास से जुड़ना है, तो व्रत को आत्मसात करना अनिवार्य है। इसके बिना आप की उपासना कोरा दिखावा है। जो स्वेच्छा पूर्ति का परिमार्जन है। वास्तविक उपासना से प्राप्त आनंद विहिन हैं।

चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भयपुत्र'      

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