पलछिन्न 'कविता'
गिरा गुलाल हैं, खिला अबीर।
रंगों से रंग मिलें हैं, बन गई हैं तकदीर।
छटक-छटक और मटक-मटक
रंग भरें बन गई एक तस्वीर।
चार रंग से काया बनाईं, बन गए उसके अधीर।
राधा गोरी,मैं क्यूं काला, तेरे रंग अनेक।
प्रेम का रंग सदा सजीला,
रात में भी रहे उजाला।
हल्दी का रंग चढ़ा, मीत तेरे बिन,
ना पूरब, ना पश्चिम।
हाथों में जब हाथ तेरा हो,
ना पवन, ना जल, ना हिम।
पलछिन्न...पलछिन्न... पलछिन्न।
होली शा, रा, रा, रा।
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