मंगलवार, 18 जनवरी 2022

स्वीडन: शोधकर्ताओं ने 'जीन' का पता लगाया

स्वीडन: शोधकर्ताओं ने 'जीन' का पता लगाया  
अखिलेश पांंडेय            स्टॉकहोम। लंबे समय से लोग कोरोना के कहर का सामना कर रहे हैं और अभी भी इससे किसी प्रकार की राहत के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। इसी बीच स्वीडन के कुछ शोधकर्ताओं ने एक खोज में बड़ा दावा किया है। शोधकर्ताओं ने एक खास जीन वैरिएंट का पता लगाया है। जो गंभीर कोरोना संक्रमण से बचा सकता है। स्वीडन में करोलिंस्का इंस्टिट्यूट के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने विभिन्न मूल के लोगों का अध्ययन करके इस वैरिएंट का पता लगाया है। इस अध्ययन को 'नेचर जर्नल' नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। जिसमें बताया गया है कि जीन कोरोना संक्रमण के असर को प्रभावित कर सकते हैं। इससे पता लगाया जा सकता है कि कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमण से कितना प्रभावित हुआ है।

पूर्व में हुए अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने पाया कि यूरोपियन मूल के लोगों में डीएनए का विशेष अंश मौजूद था। डीएनए के विशेष अंश की मौजूदगी वाले लोगों में कोविड के गंभीर संक्रमण का खतरा 20 प्रतिशत कम होता है। वैज्ञानिकों ने इस जीन वैरिएंट की पहचान करने के लिए उन लोगों को स्टडी में शामिल किया, जिनमें ये विशेष डीएनए मौजूद था। इनमें अफ्रीकी मूल के 2,787 तथा छह विभिन्न समूहों के 1,30,997 ऐसे लोग शामिल थे, जिन्हें कोरोना संक्रमण के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
अध्ययन की मुख्य लेखिका व वीए बोस्टन हेल्थकेयर सिस्टम की शोधकर्ता जेनिफर हफमैन ने कहा कि 'अफ्रीकी मूल के लोगों में मौजूद समान सुरक्षा ने हमें डीएनए के विशेष जीन वैरिएंट (आरएस10774671-जी) की पहचान के लिए प्रेरित किया, जो कोरोना के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।  शोधकर्ताओं ने कहा कि अफ्रीकी मूल के 80 फीसदी लोगों में यह प्रोटेक्टिव वैरिएंट पाया गया।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, प्रोटेक्टिव जीन वैरिएंट (rs10774671-G), जीन ओएएस1 द्वारा एन्कोड किए गए प्रोटीन की लंबाई को निर्धारित करता है। पहले के कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है कि प्रोटीन का यह लंबा वैरिएंट सर्ष-कोव-2, वायरस जो कोविड-19 का कारण बनता है, को तोड़ने में अधिक प्रभावी है। इसके अलावा, कनाडा में मैकगिल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्रेंट रिचर्ड्स ने कहा, "हम जेनेटिक रिस्क फैक्टर्स को अच्छे से समझने लगे हैं जो कोरोना के खिलाफ नई दवाइयां बनाने में मदद कर सकते हैं।

चीनी ड्रैगन ने अवैध पुल का निर्माण कार्य तेज किया    

सुनील श्रीवास्तव          बीजिंग। चीनी ड्रैगन ने भारत पर सामरिक बढ़त हासिल करने के लिए पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग झील पर बनाए जा रहे अवैध पुल का निर्माण कार्य काफी तेज कर दिया है। ताजा सैटलाइट तस्‍वीरों से खुलासा हुआ है कि यह चीनी पुल अब 400 मीटर लंबा बन चुका है। यह पुल करीब 8 मीटर चौड़ा है और चीनी सैन्‍य ठिकाने के दक्षिण में स्थित है। विशेषज्ञों के मुताबिक चीन जब यह पुल बना लेगा तब इस इलाके में उसे काफी सामरिक बढ़त हासिल हो जाएगी। 

एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक गत 16 जनवरी की सैटलाइट तस्‍वीर में इशारा मिलता है कि चीनी निर्माण कर्मचारी भारी क्रेन का इस्‍तेमाल पिलर को जोड़ने के लिए कर रहे हैं। जिस गति से यह पुल बन रहा है, माना जा रहा है कि आने वाले कुछ महीने में इसका निर्माण कार्य पूरा हो जाएगा। हालांकि अभी रुटोग तक सड़क बनाने में अभी लंबा समय लगेगा। इससे पहले खुलासा हुआ था कि चीन पैंगोंग झील पर पुल का निर्माण कर रहा है। इससे चीनी सेना पैंगोंग झील के दूसरी तरफ बहुत तेजी से अपने सैनिकों को भेज सकेगी।इससे पुल के बनने से अब चीनी सैनिकों को रुटोग अड्डे तक पहुंचने के लिए 200 किमी तक पैंगोंग झील का चक्‍कर नहीं लगाना पड़ेगा। द इंटेल लैब में शोधकर्ता दमिएन सयमोन ने कहा, 'भारी मशीनों (क्रेन) को पुल का निर्माण करने के लिए लगाया गया है। भीषण बर्फबारी और खराब मौसम के बाद भी इस पुल का निर्माण कार्य जारी है। इसके अलावा पुल तक जाने के लिए एक नया रास्‍ता उत्‍तरी किनारे पर खुर्नाक फोर्ट के पास दिखाई दिया है जो एक चीनी सड़क से जोड़ेगा।'

चीन जिस इलाके में यह पुल बना रहा है, उस पर साल 1958 से ड्रैगन का कब्‍जा है। भारत का मानना है कि यह उसके वास्‍तविक नियंत्रण रेखा के अंदर आता है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि चीन जिस जगह पर यह पुल बना रहा है, वह साल 1960 से उसके अवैध कब्‍जे में है। जैसाकि आप भलीभांति जानते हैं कि भारत ने इस अवैध कब्‍जे को कभी स्‍वीकार नहीं किया है। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने पिछले दिनों पैंगोंग सो पुल का प्रत्यक्ष उल्लेख किए बगैर पत्रकारों से कहा कि ‘आपने जो बात कही, मुझे उसकी जानकारी नहीं है।’वांग ने कहा, ‘मैं यह बताना चाहता हूं कि चीन की ओर से अपनी सीमा में किया जा रहा बुनियादी ढांचे का निर्माण पूरी तरह से उसकी सम्प्रभुता में आता है और उसका लक्ष्य चीन की क्षेत्रीय सम्प्रभुता की रक्षा करना और चीन-भारत सीमा पर शांति तथा स्थिरता बनाए रखना है।’ भारत और चीन की सेनाओं के बीच पांच मई 2020 को पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में गतिरोध शुरू हुआ। पैंगोंग झील वाले इलाके में हिंसक टकराव के बाद दोनों देशों की सेनाओं ने काफी संख्या में सैनिकों और भारी हथियारों की तैनाती कर दी। पिछले वर्ष लगातार कई दौर की सैन्य और राजनयिक स्तर की वार्ता के बाद दोनों पक्षों ने पिछले साल पैंगोंग झील के उत्तरी और दक्षिणी किनारे तथा गोगरा क्षेत्र से सैनिकों को पीछे हटाने की प्रक्रिया पूरी की।

अपने मिलिट्री बेस के लिए पाक का इस्तेमाल करेगा चीन    
अखिलेश पांडेय            
इस्लामाबाद। चीन के एशिया में पांव फैलाने और विशेष रूप से भारत पर निगाह रखने और दबाव में लाने की नीयत किसी से छिपी नहीं है। अब यही बात विशेषज्ञ भी मान रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि चीन पाकिस्‍तान के ग्‍वादर पोर्ट का इस्‍तेमाल अपने मिलिट्री बेस के लिए करना चाहता है। बता दें कि ग्‍वादर पोर्ट चीन के मल्‍टी बिलियन प्रोजेक्‍ट चीन-पाकिस्‍तान इकनामक कारिडोर का ही एक हिस्‍सा है। इस बात में कोई शक नहीं है कि चीन की इस मंशा के बारे में जानकार पहले से ही आशंका जताते रहे हैं। जानकारों का मानना है कि चीन इस पोर्ट के जरिए व्‍यापार तो करना ही चाहता है। लेकिन साथ ही वो इसको मिलिट्री बेस बनाकर इस क्षेत्र में अपनी रणनीतिक बढ़त बनाना चाहता है।

यूरोपीयन फाउंडेशन फार साउथ एशियन स्‍टडीज के डायरेक्‍टर जुनैद कुरैशी और स्‍कूल आफ अफ्रीकन एंड आरियंटल स्‍टडीज के प्रोफेसर मैथ्‍यू मैककार्टने ने एक इंटरव्‍यू के दौरान कहा कि चीन की वन बेल्‍ट एंड रोड इनिशिएटिव से जुड़े कई मुद्दों पर बात की। उनका कहना था कि यह अवश्यंभावी है कि चीन कुछ बिंदुओं पर ग्वादर में बंदरगाह का उपयोग सैन्य अड्डे के रूप में करना चाहता है ताकि विदेशी संसाधन लगातार बिना रोक-टोक के मिल सकें। लेकिन चीन इस बात को भी अच्‍छी तरह से जानता है कि उसके यहां पर मिलिट्री बेस बनाने का बड़े पैमाने पर विरोध हो सकता है। इसलिए वो इसके लिए भी बेहद सावधान रहेगा।

गौरतलब है कि वर्ष 2015 में चीन ने 46 बिलियन डालर की लागत से इकनामिक प्रोजेक्‍ट की घोषणा की थी। सीपैक का मकसद पाकिस्‍तान में अपनी भूमिका को बढ़ाना और सेंट्रल एशिया और दक्षिण एशिया में अमेरिका और भारत के प्रभाव को कम करना था। सीपैक के अतंर्गत ग्‍वादर पोर्ट के आने के बाद चीन का सीधेतौर पर राची से लिंक हो गया। ग्‍वादर पोर्ट से सामान की आवाजाही दूसरे रास्‍ते से चीन में सामान पहुंचाने से कहीं अधिक सस्‍ती है। वहीं इस तरह से कराची सीधीतौर पर चीन के शिंजियांग प्रांत से भी जुड़ गया। चीन की योजना इसके लिए ट्रेन और सड़क मार्ग तैयार करना है। इसके अलावा वो एक पाइपलाइन भी डालना चाहता है जो चीन तक तेल की सप्‍लाई सीधे कर सकेगी। ड्रैगन फ्राम द माउंटेन- द सीपैक फ्राम काशघर टू ग्‍वादर में मैककार्टने ने लंबे समय तक चलने वाले इस प्रोजेक्‍ट के पाकिस्‍तान पर प्रभाव का भी जिक्र किया है। उनका मानना है कि इससे पाकिस्‍तान को फायदा तो होगा लेकिन ये किसी भी तरह से इकनामिक गेम चेंजर के रूप में सामने नहीं आ सकेगा। न ही इसका असर पाकिस्‍तान की खराब होती अर्थव्‍यवस्‍था में सुधार को लेकर होगा। बढ़ती बेरोजगारी पर भी इससे कोई लगाम नहीं लगाई जा सकेगी। मैक का यहां तक कहना है कि इसके लिए मिले ऋण को उतारने के लिए भी पाकिस्‍तान को दूसरों पर निर्भर रहना होगा।

ऑस्ट्रेलिया: संक्रमण में तेजी, आपात स्थिति की घोषणा

सुनील श्रीवास्तव          सिडनी। ऑस्ट्रेलिया में मंगलवार को कोविड-19 से रिकॉर्ड मौत दर्ज की गई और इसके दूसरे सबसे बड़े राज्य ने अस्पतालों में आपात स्थिति की घोषणा की। जो कोरोना वायरस के चलते संक्रमितों की संख्या बढ़ने और स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं। तीन सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में 74 मरीजों की मौत हुई। न्यू साउथ वेल्स में 36, विक्टोरिया में 22 और क्वींसलैंड में 16 मरीजों की मौत हुई। इससे पहले एक दिन में कोरोना वायरस के कारण सर्वाधिक 59 लोगों की मौत चार सितंबर, 2020 को हुई थी। संघीय स्वास्थ्य मंत्री ग्रेग हंट ने कहा कि ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि न्यू साउथ वेल्स में संक्रमण की दर चरम पर पहुंच रही है और विक्टोरिया में स्थिर होने वाली है।

न्यू साउथ वेल्स की सरकार ने बेहद संक्रामक ओमिक्रोन स्वरूप से निपटने के लिए लॉकडाउन लगाने की संभावना से इनकार किया है। अक्टूबर में, सिडनी ने 108 दिनों का लॉकडाउन हटाया था क्योंकि ऑस्ट्रेलिया के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में ज्यादातर लोगों का टीकाकरण हो चुका था। विक्टोरिया ने राज्य की राजधानी मेलबर्न के अस्पतालों और कई क्षेत्रीय अस्पतालों में स्टाफ की कमी और मरीजों के भर्ती होने में वृद्धि के कारण बुधवार दोपहर से आपातकाल घोषित कर दिया। लगभग 5,000 कर्मचारी अनुपस्थित हैं क्योंकि वे या तो संक्रमित हैं या करीबी संपर्क में हैं। यह पहली बार है जब राज्य के कई अस्पतालों में आपात स्थिति लगा दी गई है। करीब 2.6 करोड़ की आबादी वाले ऑस्ट्रेलिया में 2,700 लोगों की कोविड-19 के कारण मौत हो चुकी है।

अंटार्कटिक सागर के पानी को नापने का उपकरण बनाया

सुनील श्रीवास्तव           वाशिंगटन डीसी। अंटार्कटिक सागर का पानी बेहद ठंडा है। यह बेहद ठंडा असल में कितना ठंडा है, यह हम अब जान पाएंगे। इस पानी के तापमान को मापने के लिए वैज्ञानिकों ने एक अत्याधुनिक उपकरण बनाया है। इसका नाम है- हाई प्रिसिजन सुपरकूलिंग मेजरमेंट इंस्ट्रूमेंट। न्यूजीलैंड, नॉर्वे और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने इसे बनाया है। यह उपकरण बताएगा कि अंटार्कटिक सागर के ऊपर जमी बर्फ के नीचे मौजूद पानी कितना ठंडा होता है। इस 'सुपरकूलिंग यंत्र' को एक छोटे, रिमोट कंट्रोल से संचालित रोबोट पर रखकर समंदर में जमी बर्फ के नीचे भेजा जा सकता है, ताकि यह वहां के पानी का ठीक-ठीक तापमान माप सके।

यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो की डॉक्टोरल छात्र मारेन रिक्टर ने बताया कि बर्फ की मोटी तहों के नीचे समंदर का पानी एक बड़ी पहेली की तरह है। रिसर्चर अभी इसके बारे में बहुत नहीं जानते हैं। रिक्टर ने कहा, "अंटार्कटिक के ऊपर जमी बर्फ की मोटी तह रॉस आइस सेल्फ के मुकाबले हम डार्क साइड कहे जाने वाले चांद के दूसरी तरफ के हिस्से के बारे में ज्यादा जानते हैं। रिक्टर ने बताया कि अंटार्कटिक के पानी का तापमान मापने वाला नया यंत्र बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इसकी मदद से वैज्ञानिक समझ सकेंगे कि समुद्र, उसपर जमी बर्फ और वातावरण, ये तीनों साथ मिलकर कैसे काम करते हैं। ये सभी तत्व किस तरह एक-दूसरे से जुड़े हैं, यह भी जाना जा सकेगा। रिक्टर बोलीं, "इनकी गणना बड़े स्तर पर बनाए गए मॉडलों के माध्यम से की जाती है। मॉडल जितने अधिक सटीक होंगे,  छोटे स्तर पर उनकी सटीकता जितनी ज्यादा होगी, उनसे मिलने वाली जानकारियों की सटीकता बड़े स्तर पर भी उतनी ही अधिक होगी। मसलन, भविष्य में न्यूजीलैंड का मौसम कैसा रहेगा, यह हम अधिक स्पष्टता से बता सकेंगे।

अंटार्कटिक में बर्फ की सतह के नीचे कई बार पानी का तापमान जमने के पॉइंट से नीचे होता है, लेकिन फिर भी यह जमता नहीं है। द्रव्य रूप में ही रहता है. इस प्रक्रिया को सुपरकूलिंग कहते हैं। ओटागो यूनिवर्सिटी की छात्रा इंगा स्मिथ ने बताया कि समुद्र का पानी आमतौर पर माइनस 1.9 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर जम जाता है। लेकिन जब बर्फ की मोटी परत के नीचे बहकर आया ताजा पानी जब खारे पानी से मिलता है, तो यह बेहद ठंडा हो जाता है। स्मिथ ने बताया, "तब यह होता तो द्रव है, लेकिन जमने वाले बिंदु यानी फ्रीजिंग पॉइंट से नीचे।  अंटार्कटिक के ऊपर जमी बर्फ की सतह सैकड़ों मीटर मोटी है। इसके चलते समुद्र के बाकी हिस्सों की तरह इस हिस्से में पहुंचना और इससे जुड़ी जानकारियां हासिल करना बहुत मुश्किल है। जलवायु परिवर्तन के चलते हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है। पर्यावरण में गर्मी और उष्मा की जितनी मात्रा बढ़ी है, उसका 90 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा समुद्रों ने सोख लिया है। ऐसे में जलवायु से जुड़े शोधों के लिए समुद्र के तापमान की सटीक जानकारी बेहद जरूरी है।

इस दिशा में एक बड़ी चुनौती हैं, विशेष उपकरणों की कमी। हमारे पास ऐसे यंत्रों की कमी है, जो समुद्र के ऊपर तैर रहे हिमखंडों और बर्फ की तहों के नीचे गहराई में जाकर समुद्र का तापमान को माप सकें। समुद्र पर शोध करने वाले ओशियनोग्राफर और पोलर इंजीनियर लंबे समय से इस चुनौती से जूझते रहे हैं। उम्मीद है कि अत्याधुनिक उपकरणों की मदद से वैज्ञानिकों को अंटार्कटिक की सतह के नीचे की जानकारी हासिल करने में मदद मिलेगी।

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