सोमवार, 20 दिसंबर 2021

जिंदगी से बेहतर हैं कफन 'संपादकीय'

जिंदगी से बेहतर हैं कफ़न     'संपादकीय'

बेहतर है मौंत फिर भी कि देती तो है कफ़न,
अगर ज़िन्दगी का बस चले, कपड़े उतार लेंं।

देश के बदलते सियासी परिवेश में जिस विशेष ब्यवस्था का संचालन हुआ। जो भी कुछ देश को मिला, वह आजकल हास्यस्पद बनकर दुनिया के फलक पर चर्चित हो गया है। एक साल तक चलता रहा किसान आन्दोलन। जगह-जगह होता रहा धरना-प्रदर्शन। मगर, सरकार झुकने को, किसानों की बात सुनने को तैयार नहीं थी। तुगलकी फरमान जारी करने वाली सरकार आखिर चारों खाने चित्त हो गयी ? अपने ही जाल में फंस कर बुरी तरह फंस गयी ? हुआ वहीं, जो अन्नदाता चाह‌ रहे थे, सरकार को अपनी जीद्द छोड़नी पडी। इस मुद्दे पर सरकार की पूरे देश में किरकीरी भी हुई। कश्मीर में आर्टिकल 370 हटने के क़रीब ढाई साल बाद भी कश्मीर घाटी मे बाहरी लोगों ने एक भी घर नहीं खरीदा और न बनाया। एक भी प्लाट नहीं खरीदा, कश्मीरी पंडितों की भी नहीं हुयी घर वापसी फिर भी बटोर रहे हैं वाहवाही। 
56 इंच सीना वाले साहब शाबाश। नोटबंदी से सरकार आतंकवादियों की कमर तोड़ देने के दावे कर रही थी। लेकिन आतंकवाद नहीं रूका, इतना जरुर हुआ कि पत्थरबाजों का खात्मा हो गया। जीएसटी से देश और व्यापारियों की स्थिति सुदृढ़ होने के दावे बालू की दीवार सरीखे धाराशाही हो गये। 
तबाही में देश के व्यापारी और ब्यवसाई हो गये। आस्था के प्रवाह में मोदी की चाह मेअर्थव्यवथा चौपट हो गयी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तथा वित्तमंत्री आपके दावों का क्या हुआ, न खातों में पैसा आया, न काला धन वापस आया, न देश की तकदीर बदली, न सीमा पर सैनिकों की शहादत रुकी। ढपोरशंखी सरकार के संचालकों ने जिस माहौल का निर्माण किया। उसमें उसमें केवल बैमनश्यता के पौधे हर जगह लहलहाने लगे हैं। झूठ-फरेब के सहारे जनता के दुलारे बनने का सपना अब धरातल पर कदम ताल ठोकने लगा है। ऑक्सीजन और दवा के अभाव में हजरो लोग तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिए। गोमती, सरयू और गंगा के किनारे हजारों शव बगैर अंतिम क्रिया, बिना कफ़न दफन हो गये ? धारा में बहा दिए गए। दहशत के आलम मे परिजन दहाड़े मार कर रोते रहे, अपनों को आंखों के सामने खोते रहे। हजारों परिवार अपने परिजनों को तलासते रह गये, किसी का पता तक नहीं चल सका।
राष्ट्रवादी लुटेरे तब भी मौका-ए-कब्रिस्तान और श्मशान से दूरी बनाते रहे। सियासत के सिपाही घरों में दुबके पड़े थे। गरीबों के मसीहा बनने वाले लापता थे। भला हो उस स्वाभिमानी पुलिस की वर्दी का, जो आखरी समय का साथी बनी। शवों को कन्धा देने से लेकर भूखे मरते लोगों के घरों में खाना देने तक का काम जान जोखिम में डालकर बेखौफ करती रही। सियासत के शागिर्द इस दर्द की दोपहरी में बिलुप्त हो गये। 
आखिर क्यो? 
ये तमाम सवाल अब यक्ष प्रश्न बनकर लोगों के जहन में है। महंगाई, बेरोजगारी, बेकारी और महामारी ने सामाजिक संतुलन को विखन्डित कर दिया है। हर आदमी सिसक रहा है, शिक्षा-दिक्षा व परीक्षा इस सरकार में सदियों के रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया है। झूठ की बुनियाद पर नव बिहान में तरक्की की इबारत तहरीर करने वाली मक्कार‌ सरकार। हर जगह फिजाओं में तैर रहे हैं दुख, हर आदमी मर्माहत है। आहत है, पेट्रोल से कमाए आठ लाख करोड़। बैंकों से कॉर्पोरेट के लोन राइट ऑफ कर गवाये छ: लाख करोड़। लगातार टैक्स बढ़ाकर लोगों के सर पर कर्जे चढ़ा कर भी हाथ तंग है। यह जान-सुनकर देश वासी दंग है। सब कुछ बिक रहा है, रेल बिका, भेल बिका, खेल बिका, मंहगा तेल बिका, अब जेल बिका, लाल किला बिका, कल कारखाने और मयखाने बिके। खेती किसानी के पैमाने बिके। अब सार्वजनिक बैंकों पर शनि की वक्र दृष्टी कायम है। अडानी व अम्बानी की दोस्ती का सवाल है ?
उनके सामने हर नाजायज काम जायज है। बस पूरे देश में यही बढ़ रहा बवाल है ? गजब साहब दोस्ती की मिसाल भी कमाल है। इस सदी में इतिहास रच दिया। दोस्तों का दामन इतना भर दिया है कि रस्क होने लगा है। काश कोई एक दोस्त अपना भी ऐसा होता। यह हर उद्योगपति के जहन में उठ रहा सवाल है ? देश के परिवेश में जिस तरह‌ के सियासी वातावरण का निवेश लगातार किया जा रहा है। निश्चित रुप से छांव के बाद धूप वाली बात को चरितार्थ कर रहा है। यह तो शास्वत सत्य है, बदलाव होना है। फिर जो बीज बोया है, उसे ही काटना है।
जो गड्ढा खोद रहे हो, उसे भी पाटना है।
इतिहास गवाह है, वजूद सबका मिटा है। 
चाहे तानाशाह हो या सत्यवादी शहंशाह हो। दुनिया उनके कर्मो को याद करती है। मगर हद से आगे जाकर केवल पश्चाताप ही हासिल होता है। जिसने भी सर्वे भवन्तु: सुखिन; सर्वे भवन्तु निरामय का तिरस्कार किया। उसका इतिहास भी विकृत हुआ है। बसुधैव कुटुंबकम् का सूत्र हमेशा इस समाज को प्रतिबिंबित करता रहा है। वर्तमान में हिन्दुस्तान की सियासी जमीन में दल दर-दर भटक रहा है। जिसका परिणाम आने वाले कल में काफी घातक हो सकता है। 'सबका साथ सबका विकास' तो कहीं नहीं दिखता। अब फिर नये-नये नारे बनाने का क्या फायदा ?  सर्वनाश का इतिहास इस सदी में हमेशा चटकारे लेकर पढा जायेगा।
साये की तरह बढ़ न कभी, कद से ज्यादा।
थक जायेगा अगर भागेगा, हद से ज्यादा।
जगदीश सिंह      

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