वाशिंगटन डीसी। डीजल-पेट्रोल की कीमतों को आसमान छूते देख सोचता हूं कि क्यों न एक इलेक्ट्रिक कार खरीद लूं। किफायती रहेगी और पर्यावरण के अनुकूल भी। मगर जब इस खयाल को निर्णय तक पहुंचाने की कोशिश करता हूं। रास्ते में कुछ अवरोध आ खड़े होते हैं। इनमें से तीन कुछ ज्यादा ही प्रतोसाहित करने वाले हैं। पहला, इसकी ऊंची कीमत। दूसरा, जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर और तीसरा, इन कारों के सीमित विकल्प। ये तीन अवरोधक शायद मेरे जैसे कई और इच्छुक ग्राहकों के लिए फैसले की राह दुर्गम कर रहे हों और शायद इसी कारण तमाम सरकारी रियायतों के बावजूद देश में इलेक्ट्रिक कार की बिक्री मनचाही रफ्तार नहीं पकड़ पा रही। पर सुखद यह कि तमाम ऑटोमोबाइल कंपनियां इन कारों के सस्ते और सर्वसुलभ विकल्प विकसित करने में जुटी हैं, जिनके अपेक्षित नतीज़े जल्द आने की उम्मीद है।
वैसे यह जानना खासा दिलचस्प होगा कि जिस इलेक्ट्रिक कार को हम ताज़ा तकनीकी अविष्कार और भविष्य की कार के तौर पर देखते हैं, वह सही मायने में दुनिया की पहली कार है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इलेक्ट्रिक कार की अवधारणा करीब दो सौ साल पुरानी है।
हालांकि पहली इलेक्ट्रिक कार किसने ईजाद की, इसे लेकर थोड़ा विवाद है। फिर भी ज्यादा सहमति इस बात पर है कि पहली इलेक्ट्रिक कार बनाने में सफलता हंगरी के एनोस जेडलिक ने पाई। इसके बाद 1832 में स्कॉटलैंड के रॉबर्ट एंडरसन ने यह कर दिखाया। दो साल बाद (1834 में) अमेरिका के थॉमस डेवनपोर्ट ने भी इलेक्ट्रिक कार बनाने का दावा पेश कर दिया। हालांकि ये कारें बहुत व्यवहारिक नहीं बन सकी थीं।
लिहाज़ा, बेहतरी की कवायद चलती रही, प्रयोग होते रहे। 1890-91 में अमेरिका के ही वैज्ञानिक विलियम मॉरिसन ने एक ऐसी कार बनाने में सफलता पाई, जिसमें छह लोग बैठ सकते थे और यह 23 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिकतम रफतार से दौड़ सकती थी। इस बीच 1885 में जर्मन इंजीनियर कार्ल बेंज ने पेट्रोल से चलने वाली पहली कार पेश कर दी थी, जिसकी लागत इलेक्ट्रिक कार से कम थी और रफ्तार ज्यादा।
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