जिस देश में गंगा बहती हैं 'संपादकीय'
हर एक मन्दिर में दिया भी जले, मस्जिद में अजान भी हो।
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो।
हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं।
हुकूमतें जो बदलता है, वो समाज भी हो।
बदल रहे हैं आज आदमी दरिंदों में।
मरज़ पुराना है, इस का नया इलाज भी हो।
सियासी बाजार में भाईचारे का व्यापार धड़ल्ले से हो रहा है। आज के दौर में विश्वासघात का प्रचलन आम हो गया है। अब न आस्था की प्रवाह है, न ब्यवस्था में चाह है। जहां मतलब की कश्ती स्वार्थ के भावार्थ से बोझिल हो रही हो, चाहत को आहत किये बगैर सही सलामत धन लक्ष्मी का स्वागत हो रहा हो। ऐसे मौके की तलाश में हताश मन से ही सही सियासतदार मजेदार कारनामो के साथ प्रतिघात का अवसर तलाश रहे हैं। भारत वर्ष में सभी धर्म-जाति के लोग सहर्ष रह रहे हैं। लेकिन उत्कर्ष के चरम पर पहुंच कर भी देश का परिवेष कुछ सियासी जाहीलो के चलते विषाक्त हो गया। एक तरफ सनातन धर्मावलम्बी अपने आराध्य की सेवा में सुबह-शाम इन्सानियत को जिन्दा रखने के लिये, मानव समाज में समदर्शिता का पैगाम देते हैं। वहीं, हर सुबह शाम मस्जिदों में अजान के बाद समूचे हिन्दुस्तान में खुदा की इबादत के साथ ही समाज में पारदर्शिता कायम रखने के साथ ही मानवता को बचाए रखने का मुसलमान एहतेराम करते हैं।
बसुधैव कुटुंबकम् के आवरण में सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा का तराना गाने वालो के बीच जहरीला स्पीच सियासत के शानिध्य में तिफरका पैदा करने वाली तकरीर के साथ ही ऊंच-नीच, जाति-पाति व धर्म-मजहब की घृणित मानसिकता से दुरभिसन्धि का दुष्प्रचार सामाजिक ढांचे को हिला रहा है।भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को हिला रहा है। अब त्योहारों में भाई चारगी देखने को नहीं मिलती। बस दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहीये, वाली बात रह गयी है। धर्म मजहब का जहर गांव हो या शहर सबको गिरफ्त में ले रहा है। हर एक आदमी दुसरे को सन्देह की नजर से देख रहा है। ईद-बकरीद, दशहरा-दीपावली ऐसा त्योहार था कि इनका नाम आते ही समरसता, समदर्शिता, समानता ,मानवता सहृदयता के साथ ही आपसी भाईचारे का एहसास होता था।
मगर इधर के कुछ सालों में सारे त्योहार विलोपन की तरफ बढ़ चले है। न कोई उत्साह, न एक दुसरे से मिलने की चाह। बस उन्माद भरा अथाह जहरीला जज़्बात सबके साथ चल रहा है। परिवर्तन का संकीर्तन जिस तरह शुरु है यही हालात रहे तो एक अजीब माहौल कायम होगा। हर दिल वैमनश्यता की जहरीली सूई से बुझा होगा। सियासत की जहरीली आंधी ने इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब को मटियामेट कर दिया। भाईचारगी का विलोंपन कर दुश्मनी को कारपोरेट कर दिया।एक देश, अनेक भाषा अनेक भेष। सबका एक साथ रहन-सहन एक साथ निवेश। लेकिन आज पूरी तरह बदल गया है परिवेश। सियासत की करामाती कुर्सी के लिये जिस फुर्ती से बदलाव की ईबारत तहरीर हो रही है। वह आने वाले कल के लिये शुभ संकेत नहीं है ?
समय का तेवर रोज बदल रहा है। कहीं महामारी तो कहीं बिमारी कहीं बाढ़ और बारिश। तो कहीं बर्फबारी से तबाही मची हुयी है। मानवता का अस्तित्व खतरे में है तब भी लोग समझदारी की चादर फेंककर, वफादारी को दरकिनार कर, खुद की झूठी तरफदारी में लगे हुये है। इन्सानियत ठोकर खा रही है। कदम-कदम पर धोखे के कारोबार उफान पर है। आपसी कलह में बढ़ती गद्दारो की फौज से खतरा हिन्दुस्तान पर है।सावधान रहें सतर्क रहें। याद रखे हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा बहती है।
जगदीश सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Thank you, for a message universal express.