बाकी किसान रहेंगे... 'संपादकीय'
मंदिर में घंटा, मस्जिद में अजान रहेंगे।
खून चूसने वाले खटमल-पिस्सु महान रहेंगे।
कारवां गुजर गया, अब तेरे भी दौर से।
कोई नहीं बचा 'सनकी', बाकी निशान रहेंगे।
भारत है किसानों का, बाकी किसान रहेंगे.....
किसान आंदोलन से सरकार की जड़े हिल चुकी है। सरकार की छवि के साथ-साथ विश्व स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी इंगित किया गया है। आंदोलन की गूंज धरती के कोने-कोने तक सुनी जा सकती है। जिसके कारण सरकार से प्रभावित हस्तियां भी खुले मंच पर उद्घोष करने से गुरेज नहीं कर रही है। इसका अर्थ यह है कि आंदोलन अपने निर्धारित लक्ष्य को भेदने के काफी करीब है। संभवतः कुनीतियों का समर्थन करने वाली सरकार आंदोलन को कुचलने या मसलने के कई आयामों पर विचार-विमर्श कर रही हो? किसी ऐसी रणनीति पर कार्य किया जा रहा हो। जो आंदोलन में स्थिरता ला सके या आंदोलन को दो फाड़ कर सके। इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है। ऐसा बिल्कुल किया जा सकता है। सरकार की मंशा किसी से छिपी नहीं है। ऐसा अनुमान लगाना भी व्यर्थ ही है कि सरकार कृषि कानूनों को रद्द कर देगी। इसलिए आंदोलन में रचनात्मक बदलाव का अभाव प्रतीत किया जा रहा है। यदि स्थिति के अनुसार प्रयोगात्मक परिवर्तन किए गए तो यह आंदोलन देखते ही देखते जन आंदोलन बन जाएगा। वर्तमान शासकीय प्रणाली में स्थाई परिवर्तन की संभावना प्रबल हो जाएगी।
आंदोलन के 72वें दिन कई उतार-चढ़ाव के बाद, किसानों के द्वारा एनसीआर में आज 3 घंटे का चक्का जाम सरकार को सीधा संदेश है। लेकिन सरकार विभिन्न योजनाओं में व्यस्त है। जो इस सीधे संदेश का रूपांतर नहीं करेगी। यह सरकार और सरकारी तंत्र के लिए कैंसर के जैसा होगा।
अनियंत्रित गति से बढ़ती हुई महंगाई की मार झेलने वाला मध्य वर्ग, आरक्षण से प्रभावित वर्ग, कोरोना काल से प्रभावित वर्ग और समूचा विपक्ष सरकार के सामने अलग-अलग स्थिति में कार्यरत है, और अलग-अलग मोर्चा संभाले हुए हैं। सरकार की खिलाफत हवा में घुल-मिल गई है। भाजपा का झंडा उठाने वाले ज्यादातर लोग उन्हें छोड़ चुके हैं या बदल चुके हैं। सरकार को और भी ऐसे कई पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने की सख्त आवश्यकता है। लेकिन सरकार वह देखना ही नहीं चाहती है जो प्राथमिकता के आधार पर उसे देखने की जरूरत है।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'
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