...जय किसान 'संपादकीय'
विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र में 'गणतंत्र दिवस' के मौके पर लोकतांत्रिक व्यवस्था दो भागों में विभाजित हो गई। एक और राजतंत्र और दूसरी तरफ किसान परस्पर एक दूसरे के विरोधी हो गए हैं। 'कृषि' प्रधान लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसान सरकार की अनिती, हट और जबरदस्ती की अवधारणा के विरोध में इस सीमा तक जिद पर अड़ गया है कि संपूर्ण विश्व के सामने वर्तमान सरकार को दोषियों की भांति कटघरे में खड़ा कर दिया है। जनता के द्वारा चुनी गईं सरकार का एक वर्ग, किसानों का भरोसा खो चुकी है। सरकार यदि गरीब-मजदूर को ही गणतंत्र का आधार मान रही है, तो सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि किसान और गरीब-मजदूर परस्पर एक दूसरे के सहयोगी है और उनका रिश्ता आजीवन बना रहता है। दोनों सदैव एक दूसरे के पूरक बने रहते हैं। "मुट्ठी भर अरबपतियों से गणतंत्र प्रतिस्थापित नहीं होता है। वरन, अरबपति वर्ग गणतंत्र से प्रतिस्थापित होता हैं।
किसान और मजदूर दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। देश का किसान और मजदूर वर्ग ही वास्तविक रूप में गणतंत्र का ताना-बाना है। इस ताने-बाने के विरुद्ध खड़ी सरकार को अपने पैरों के नीचे की जमीन का ध्यान रखना चाहिए। जिस राष्ट्र में 'जय जवान-जय किसान' का उद्घोष होता है। उसी देश में जवान और किसान अलग-अलग मोर्चा संभाल रहे हैं। 'गणतंत्र दिवस' पर लोगों को विभाजित कर दिया गया है। यह मोर्चाबंदी दुनिया के अन्य देशों के लिए एक सीख होगी। सरकार की दमनकारी नीतियों से विश्व में भारत गणराज्य की वास्तविक स्थिति का जो खाका तैयार होगा। वह किसी भी सूरत में भारत के स्वरूप को कितना मैला और कुचैला कर सकता है। इसका शायद सरकार को भान नहीं है। राष्ट्र की प्रतिष्ठा और गौरव दोनों को भारी क्षति होगी। ब्लकि, विश्व पटल पर राष्ट्र को एक बदसूरत तस्वीर के रूप में पेश किया जाएगा। यह 'गणतंत्र दिवस' संवैधानिक ढांचे और संसद के बीच गणतंत्र की पैरवी नहीं कर रहा है। देश की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा संविधान और उससे प्राप्त अधिकार से संसद को गणतंत्र की आभा से साक्षात करने का कार्य कर रहा है। दोनों पक्षों के परस्पर विरोध से राष्ट्र को आवश्यक रूप से क्षति पहुंचेगी। हालांकि, अंत में किसी एक पक्ष को तो झुकना ही होगा। विश्वास कीजिए, वह केवल 'सरकार' ही होगी। आंदोलनकारियों का 'धर्म' आंदोलन है। जिसे लोकतंत्र में किसी प्रकार से रोका नहीं जा सकेगा।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'
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