मंगलवार, 19 जनवरी 2021

आओ फिर से दीप जलाएं 'कविता'

आओ फिर से दीप जलाएँ...
भरी दुपहरी में अंधियारा,
सूरज परछाई से हारा।
अंतरतम का नेह निचोड़ें...
बुझी हुई बाती सुलगाएँ,
आओ फिर से दीप जलाएँ।

हम पड़ाव को समझे मंज़िल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल।
वतर्मान के मोहजाल में...
आने वाला कल न भुलाएँ,
आओ फिर से दीप जलाएँ।

आहुति बाकी, यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा।
अंतिम जय का वज़्र बनाने...
पुनः दधीचि हड्डियां गलाएँ,
आओ फिर से दीप जलाएँ।
शिवांशु 'निर्भयपुत्र'

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