नई दिल्ली/ वाशिंगटन डीसी। भारतीय जनता पार्टी के विदेश मामलों के प्रभारी विजय चौथाईवाला ने ‘ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी’ की अमेरिकी शाखा को एक चिट्ठी लिखी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि पार्टी से जुड़ा कोई भी आदमी अमेरिका में भाजपा के नाम पर वोट नहीं मांगेगा और भाजपा के सदस्य के तौर पर किसी पार्टी का प्रचार नहीं करेगा। चाहे रिपब्लिकन यानी डोनाल्ड ट्रंप के लिए वोट मांगें या डेमोक्रेट यानी जो बाइडेन के लिए वोट मांगें, यह काम निजी तौर पर करें, पार्टी के नाम पर नहीं। उन्होंने कमला हैरिस के उप राष्ट्रपति पद का डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बनने पर खुशी भी जताई पर साथ ही कहा कि भाजपा अमेरिकी चुनाव के मामले में तटस्थ रहना चाहती है। ध्यान रहे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने भारतीय मां की संतान कमला हैरिस के उम्मीदवार बनने पर आधिकारिक प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया था, जबकि कमला हैरिस के पिता के देश जमैका ने इस पर न सिर्फ खुशी जताई थी, बल्कि उनका समर्थन भी किया था।
बहरहाल, सवाल है कि ऐसी चिट्ठी इस समय लिखने की क्या जरूरत आन पड़ी? क्या भारतीय जनता पार्टी को अमेरिका में हवा के बदलते रुख का अंदाजा हो गया है? क्या केंद्र की सरकार कुछ अलग हवा बहती महसूस कर रही है और इसलिए पार्टी को ऐसा स्टैंड लेना पड़ा है? खुल कर ट्रंप का समर्थन करने और ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा लगाने वाले अगर तटस्थ हो रहे हैं तो यह बड़े बदलाव का संकेत है।
जो हो यह दिलचस्प घटनाक्रम है। अभी तक भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार पूरी तरह से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ खड़ी दिख रही थी। खुद ट्रंप ने अपने प्रचार का जो पहला वीडियो जारी किया है उसमें उन्होंने पिछले साल ह्यूस्टन में हुए ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम और इस साल अहमदाबाद में हुए ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम की वीडियो इस्तेमाल की है। उन्होंने अपने प्रचार में कहा है कि नरेंद्र मोदी उनके दोस्त हैं और भारतीय अमेरिकी उनके लिए वोट करेंगे। क्या ‘ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी’ की तरह भाजपा या भारत की सरकार ट्रंप को कह सकते हैं कि आप अपनी प्रचार सामग्री से प्रधानमंत्री मोदी का नाम और उनकी फोटो हटाएं? वैसे सोशल मीडिया में एक मजाक यह भी चल रहा है कि कोरोना वायरस अब सिर्फ दो ही जगह है- एक ट्रंप के यहां और एक नमस्ते ट्रंप के यहां!
बहरहाल, अमेरिका में हवा बदल रही है। चुनाव में दो महीने से भी कम समय रह गए हैं। पोस्टल बैलेट से मतदान शुरू भी हो गया है और तमाम सर्वेक्षण डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन की बढ़त बता रहे हैं। उन्होंने अपनी रनिंग मेट यानी उप राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर भारतीय अमेरिकी मूल की कमला हैरिस को चुना है। इतने भर से भले तमाम भारतीय अमेरिकी मतदाता डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक नहीं हो जाएंगे पर अब यह वोट बंटने की वास्तविक संभावना दिख रही है।
ट्रंप और मोदी से पहले आमतौर पर भारतीय अमेरिकी बाकी प्रवासियों की तरह डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए ही वोट करते रहे थे। ट्रंप से नरेंद्र मोदी की कथित दोस्ती और ट्रंप के मुस्लिम विरोधी रुख ने भारतीय अमेरिकियों के एक बड़े समूह को उनके साथ जोड़ा है पर पढ़ाई से लेकर काम करने तक के लिए मिलने वाले अमेरिकी वीजा के नियमों को ट्रंप ने जैसे बदला है, उससे भारतीय अमेरिकी सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। कारोबार के मामले में भारत को मिला विशेष दर्जा भी उन्होंने खत्म कर दिया है और भारतीय उत्पादों पर लगने वाले आयात शुल्क में बढ़ोतरी कर दी है। इससे भी भारतीय कारोबारियों के हित प्रभावित हुए हैं। सो, ट्रंप ने भारत को लेकर जुबानी जमाखर्च जो किया हो पर वास्तविकता में भारत या भारतीयों को उनसे कोई फायदा नहीं हुआ है। उलटे उनके सहयोगी के तौर पर अपनी पोजिशनिंग करके भारत ने अपने दुश्मन ही बढ़ाए हैं। चीन की आक्रामकता का एक कारण अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती निकटता भी है।
सो, यह अच्छा है जो भारतीय जनता पार्टी ने ट्रंप का प्रचारक दिखने से अपने को दूर किया है और अपने समर्थकों, सदस्यों से कहा है कि वे जिसके लिए भी प्रचार करें, निजी तौर पर करें। पर सवाल है कि क्या भारत सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने अमेरिका के साथ और खास कर ट्रंप के साथ संबंधों में जिस तरह का आचरण किया है वह इतनी आसानी से अनडू हो जाएगा? क्या जो बाइडेन और कमला हैरिस मान लेंगे कि भारत तटस्थ हो गया है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले चार साल में अपने को ट्रंप से इतना करीब दिखाया है कि बहुत आसानी से उस अतीत से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता है।
असल में भारत सरकार ने पिछले छह साल में जिस तरह से घरेलू राजनीति के सारे स्थापित नियमों, व्यवस्थाओं, परंपराओं से परे जाकर मनमाने तरीके से काम किया वैसा ही काम कूटनीति और वैश्विक संबंधों के मामले में भी किया है। ट्रंप के साथ जब प्रधानमंत्री दोस्ती बढ़ा रहे थे और ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम में जा रहे थे तब भी उनको आगाह किया गया था कि देशों के रिश्ते इस तरह से नहीं चलते हैं। कूटनीति में राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों के निजी संबंध कम महत्व रखते हैं और देशों व सरकारों के संबंध अहम होते हैं, जो दोपक्षीय हितों पर आधारित होते हैं। ट्रंप ने तो अमेरिकी हितों को प्रमुखता देते हुए ही काम किया पर मोदी प्रशासन ने दोनों देशों के संबंधों को मोदी-ट्रंप के निजी संबंधों में बदलने का प्रयास किया, जिसका खामियाजा भारत अभी भुगत रहा है और आने वाले दिनों में ज्यादा भुगतना पड़ सकता है। अगर अमेरिका में प्रशासन बदलता है। डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत होती है तो भारत के लिए नए प्रशासन के साथ कदमताल करते हुए चलना बहुत आसान नहीं होगा। एक तो अमेरिका वैसे भी मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और कश्मीर के मुद्दे पर ऐसा रुख रखता है, जो भारत की मौजूदा सरकार के अनुकूल नहीं है। ऊपर से अगर बाइडेन-हैरिस की जोड़ी सरकार में आती है तो इन मुद्दों पर अमेरिका का रुख और सख्त होगा, जो भारत के मौजूदा प्रशासन के लिए अच्छी बात नहीं होगी। हो सकता है कि प्रवासी भारतीयों के लिए बाइडेन-हैरिस की जोड़ी अच्छी साबित हो, वीजा नियमों में बदलाव हो जाए और भारत का विशेष दर्जा भी बहाल हो जाए पर कश्मीर से लेकर धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार के मुद्दों पर बाइडेन प्रशासन का रुख भारत से बिल्कुल उलटा होगा। ट्रंप प्रशासन के साथ मोदी सरकार का पुराना अतीत और सरकार की नीतियां दोनों देशों के संबंधों को और जटिल बना सकते हैं। फिर भी अच्छा है, जो चुनाव से पहले ही भाजपा ने अमेरिकी राजनीति में एक पक्ष बनने की बजाय तटस्थता दिखानी शुरू कर दी है। उम्मीद करनी चाहिए कि यह नीति बाकी देशों के साथ कूटनीति में भी कंटीन्यू की जाएगी। आखिरकार चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले लगने और झूला झूलने की कूटनीति दोनों देशों के संबंधों को कहां ले आई है, वह सब देख रहे हैं।
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