रविवार, 21 जून 2020

फादर्स डेः पिता का साया सदा सुखदाई

पिता की छांव सदा ही सुखद होती है



पिता की अवधारणा में समाहित है जीवन चक्र जिसके सहारे विश्व का वर्तमान व्यापक रूप नजर आता है। जिससे परिवार की परिकल्पना साकार रूप लेती है। जिसके सुखद छांव में सुव्यवस्थित परिवार की संरचना सुनिश्चित है। जिसके सिर से पिता की साया हट जाती है , उसका जीवन विरान हो जाता है। वह अनाथ हो जाता है। वे लोग ज्यादा भाग्यशाली माने जाते है जिनके सिर पिता की साया लम्बें समय तक विराजमान रहती है। पुत्र में पिता अपनी परिकल्पना को सर्दव ढूंढ़ता है। उसे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर उसके सहारे की महती आवश्यकता होती है।
भारतीय दर्शन में पिता पुत्र के संबंधों के अनेक अनुकरणीय उदाहरण है। जहां पुत्र पिता के हर दुःख सुख का साथी होता है। वह श्रवण कुमार बनकर लाठी बनता नजर आता है तो कहीं राम की तरह पिता के आदेश को सादर स्वीकार करते मिलता है। पाश्चयात संस्कृति में पिता पुत्र के इन संबंधों को नहीं देखा जा सकता । पुत्र पाने की मनोकामना हर पिता के मन को होती है पर पिता-पुत्र धर्म निभाने की परम्परा भारतीय संस्कृति में हीं देखी जा सकती । पितृ पक्ष की परम्परा भी भारतीय संस्कृति में हीं देखने को मिलती।
पिता पुत्र के आपसी संबंधों पर आधुनिकता ने भी अपना प्रभाव जमाया है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जहां पुत्र पिता को केवल जन्मदाता मानता है, उसे आश्रय देने की भी जरूरत है, इस जिम्मेवारी से पग स्थिर होते ही भाग खड़ा होता है। उसे बचपन से अपने कंधों का सहारा देकर बड़ा करने वाला पिता एक समय बोझ सा प्रतीत होने लगता है। इस तरह के उभरते परिवेश ने वृद्धाश्रम की अवधारणा को उभार दिया जहां पिता पुत्र से अलग नजर आने लगा है। वृद्धाश्रम जा कर के भी पुत्रमोह से अपने आप को भारतीय पिता अलग नहीं कर पाता, वह इस छिपे दर्द को अपने जैेसे वृद्धाश्रम में आये सहयात्री के साथ बांटता नजर आता है। इस तरह के उभरते परिवेश भारतीय संस्कृति के अनुकूल तो नहीं है पर आधुनिक परिवेश से प्रभावित युवा पीढ़ी की यह धरोहर बनती जा रही है जिसका भावी भविष्य कभी सुखद नहीं हो सकता । इस तरह के उभरते परिवेश से पिता के मन में अंत समय ऐसी वितृष्णा पैदा हो जाती है, जहां पुत्र होने की परिकल्पना खत्म हो जाती है। जिस पुत्र को पाने के लिये जिसने हर तरह के प्रयास किये हो, धर्म स्थानों के चक्कर काटे हों, जंतर – मंतर के बीच नहीं चाहते हुये भी दिये ताबीज को बांधी होे, जिसने जो कहा, उसे पूरा किया हो, वहीं औलाद जब उसे घर से बाहर निकाल वृद्धाश्रम का राह दिखा दे तो ग्लानी होना स्वाभाविक है।
इस तरह के उभरते परिवेश के बीच आज भी अनेक परिवार देखने को मिल जायेंगे जहां भारतीय संस्कृति जिंदी है। जहां पुत्र पिता के हर कदम का सहारा बना अपनी दिनचर्या को बेहतर ढंग से निभा रहा हैं। कार्यालय जाते समय पिता के पांव छूकर आशीर्वाद लेने एवं दिनभर का थका अपने कार्यालय से घर आने पर पिता का हालचाल पूछने एवं, संग में चाय पीने, पिलाने की परम्परा आज भी जहां कायम है वहां कष्ट अपने आप भाग जाता है। पिता की छांव सदा हीं सुखद होती है, इसका आभास उस पारिवारिक परिवेश से किया जा सकता है जहां आज भी पिता की उपस्थिति में संगठित परिवार है। जहां पिता आदर का पात्र है।


ब्रज बिहारी दुबे



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