काठमांडू। नवम्बर 1814 से मार्च 1816 तक नेपाल (जिसे उस समय गोरखा अधिराज्य कहा जाता था) और भारत पर शासन कर रही ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच युद्ध चला जिसमें नेपाल को पराजय का सामना करना पड़ा। 4 मार्च 1816 को सम्पन्न सुगौली संधि के साथ इस युद्ध का समापन हुआ और संधि के फलस्वरूप नेपाल को अपने एक तिहाई हिस्से से हाथ धोना पड़ा। संधि से पहले तक जो नेपाल का भू-भाग था वह ब्रिटिश भारत में शामिल कर लिया गया। नेपाल, जो कभी किसी का उपनिवेश नहीं रहा, अब भी एक स्वतंत्र राष्ट्र तो था लेकिन संधि के अनुसार काठमांडो में स्थायी तौर पर एक ब्रिटिश रेजिडेंट की नियुक्ति हुई और ब्रिटिश सेना के लिए गोरखा सैनिकों की भर्ती की प्रथा शुरू हुई। वैसे भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का मक़सद तिब्बत तक व्यापार के लिए रास्ता तैयार करना था।
सुगौली संधि की धारा 5 के अनुसार महाकाली नदी के पूर्व का क्षेत्र नेपाल के हिस्से में आया और इसके पश्चिम का सारा क्षेत्र ब्रिटिश भारत में मिल गया। इस संधि में लिंपियाधारा को महाकाली नदी का स्रोत बताया गया है। कालापानी और लीपुलेख महाकाली नदी के पूर्व में हैं जिसके आधार पर नेपाल इस पर अपना दावा करता है।
कालापानी में भारतीय सैनिक कब और कैसे पहुँचे, इसका किसी के पास ठोस रूप से कोई जवाब नहीं है। नेपाल के सीमा विशेषज्ञ और ‘भू सर्वेक्षण विभाग’ के पूर्व डायरेक्टर जनरल बुद्धि नारायण श्रेष्ठ का अनुमान है ‘1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध होने के बाद जब चीनी सेनाओं ने भारतीय सैनिकों को पीछे खदेड़ना शुरू किया तो वे कालापानी तक पहुँचे। उन्होंने देखा की सामरिक दृष्टि से यह स्थान बहुत महत्वपूर्ण है और फिर उन्होंने यहाँ एक सैनिक अड्डा स्थापित कर लिया ताकि अगर चीन दोबारा हमला करे तो वे मुक़ाबला कर सकें। यह स्थान थोड़ी ऊँचाई पर था जहाँ से चीनी सैनिकों पर निगरानी रखी जा सकती थी।’
लंबे समय तक नेपाल के लोगों का ध्यान कालापानी और वहाँ स्थित भारतीय सैनिक अड्डे पर नहीं गया क्योंकि 1991 के बाद से ही कालापानी की चर्चा सुनने को मिलती है। इसकी दो वजहें समझ में आती हैं। एक तो यह कि सुदूर पश्चिमी नेपाल का यह हिस्सा अत्यंत दुर्गम था और वहाँ तक पहुँचने के लिए कोई साधन नहीं था। महेंद्र राजमार्ग बनने के बाद ही सुदूर पश्चिम का काठमांडो तथा अन्य हिस्सों के साथ सहज संपर्क कायम हो सका। दूसरी वजह नेपाल की निरंकुश पंचायती व्यवस्था थी जिसमें राजा ही सर्वोपरि था और जनता की आवाज़ का कोई अर्थ नहीं था। राजकाज के मसलों से काफ़ी हद तक लोग उदासीन रहते थे। 1990-91 में लंबे जन आंदोलन के बाद जब बहुदलीय व्यवस्था और संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हुई, इसके बाद ही लोग ज़्यादा मुखर हो सके।
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