अच्छे दिनों का किला ढह गया
इजाजत दे दे अब हमें मरने की,
वरना कोई रहा निकाल पेट भरने की।
फाका मेरे बच्चो का, बेखौफ कर दिया है।
जमीर अब गवाही नहीं देता है डरने की।
तेरी हुकूमत से मुझे बगावत नहीं है।
ऐसी बे-तरतीब मेरी आदत नहीं है।
अपने-अपने घरों में भूखे पेट रोने से,
हम जिंदा रहेंगे हिफाजत ओढ़ कर सोने से।
अपने-अपने घरों में नजरबंद किया है।
हालात ए दस्तूर हमने भी पसंद किया है।
गरीब का काम नहीं तो इंतजाम नहीं।
दो वक्त की रोटी भी सुबह-शाम नहीं।
सांस वायरस के खौफ से नहीं चलेगा।
फकत कुछ वादों से चूल्हा नहीं चलेगा।
हवा-हवाई फैसलों को जमीन पर उतरना होगा।
बिखरा वतन मदद के हाथों से सवारना होगा।
कमोबेश जहां अनाज ही अनाज निकलता है।
बदकिस्मती वहीं से भुखमरी का आवाज निकलता है।
मंजर साफ इशारा है हुकूमत की बेपरवाही का।
सूली पर लटकी भूख की तस्वीर की गवाही का।
देश तरक्की परस्त मुल्क में शुमार था।
हमें भी इस गलतफहमी का बेहद खुमार था।
नासूर बना जख्म कतरा-कतरा लहू बह गया।
बुरे दिन ढूंढता हूं अच्छे दिनों का किला ढह गया।
'सिराज' मोहम्मद सिराज
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Thank you, for a message universal express.