नई चुनौती 'संपादकीय'
विश्व में कोरोना वायरस संक्रमण का भीषण प्रकोप जारी है। लाखों लोग संक्रमण की जद में है। 9000 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। निकट भविष्य में इससे छुटकारा मिलने का कोई आसार नहीं नजर नहीं आता है। भारत में भी संक्रमण अपने गंतव्य की ओर बे रोक-टोक बढ़ता जा रहा है। देश के कुछ राज्यों पर अंदेशा है, ज्यादातर राज्यों में संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है।
सरकार का समस्या के समाधान की चिंता करना स्वभाविक है। सरकार के पास चिंता करने की ठोस वजह भी है। लेकिन समाधान का कोई ठोस आधार नजर नहीं आता है। विकसित राष्ट्रों की तुलना में विकासशील राष्ट्रों को महामारी की अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। जिस प्रकार चीन में जनता को संकट और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। भारत में यह कहीं ज्यादा भयावह और पीड़ादायक हो सकता है। जिस प्रकार से व्यावसायिक केंद्र, उद्योग-धंधे, सरकारी संस्थान अथवा गैर सरकारी संस्थान प्रतिबंधित किए जा रहे हैं। रोक लगाई जा रही है, बंद किया जा रहा है। इन सब की कड़ियां जुड़ती जा रही है। नगरों में निवास करने वाले लाखों सामान्य 'मजदूर वर्ग' को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ेगा। अभाव और ग्रस्त की व्यथा सुनने वालों का भीरू तोड़ा है। वहीं अगर कोई ज्ञात-अज्ञात है भी तो उनके पास ना मास्क है और न अन्य सुरक्षित रसायन है।
इस वैश्विक महामारी का भविष्य में क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा ? यह तो भविष्य के गर्भ में स्थित है। परंतु रोज मजदूरी करके कमाने-खाने वाले एवं उन पर आश्रित लोगों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है। राज्य अथवा केंद्र की सरकार के पास स्थिति से निपटने की कोई भी योजना धरातल पर प्रतिपादित नहीं है। यदि ऐसी कोई योजना है तो बेरोजगारी की मार झेल रहे, भुखमरी के कगार पर खड़े, मजदूर वर्ग को उसका लाभ कब दिया जाएगा ? कोरोना वायरस तो उन पर कोई असर करें या ना करें। क्योंकि अखबार खरीदने की कोई स्थिति नहीं है और समाचार देखना उन्हें पसंद ही नहीं है। जिसके कारण ज्यादातर स्थिति की वास्तविकता से अनभिज्ञ है। उसका भय और संताप कैसा ? लेकिन उनकी जटाग्नि उन्हें भस्म ना कर दें। कोरोना वायरस कुछ ऐसी ही चुनौतियां लेकर आया है। अब देखना यह है कि इन्हें स्वीकार कौन करता है ?
कुछ लोग...
लावा के सागर में, खुद से झगड़ते हैं।
आसमां में लीक खींचकर, हवा को पकड़ते हैं।
राधेश्याम 'निर्भयपुत्र'
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