पतित पावन 'उपन्यास'
गतांक से...
जया के संबोधन से चारों तरफ सन्नाटा पसर गया था।
सन्नाटे के भीतर संवेदना जागृत हो गई थी। इन चंद शब्दों के प्रहार से भावनात्मक प्रक्रिया विश्लेषक हो रही थी, रह-रहकर विश्लेषण हो रहा था। मन में कई प्रकार के सवाल घर कर रहे थे। यह किसी एक विशेष के लिए नहीं था, जो लोग वहां पर उपस्थित थे। उन सब के जेहन में कई सारे सवाल घर कर गए थे। गलूरी कुछ समय तक जया को ताकता रहा, भांपता रहा, फिर कुछ लंबी सांस लेकर गलूरी ने कहा- बेटी तू क्यूँ व्याकुल हौवै? बता के चाह?
जया ने भावनात्मक आवरण को तोड़कर गलूरी की तरफ देखा और बड़े शांत स्वभाव में शालीनता के साथ कहा- पिताजी क्या मजदूरों को इनके भरपेट अनाज नहीं मिलना चाहिए, यह लोग कितनी यातनाएं झेलते हैं, कितनी दुत्कार के बाद भी कितने कष्ट सहकर, कितना कठोर परिश्रम करते हैं। किंतु इन्हें प्रताड़ना के अलावा और कुछ नहीं मिलता है। क्या इन्हें भरपेट खाना नहीं मिलना चाहिए? सबसे अहम बात यह कि ये लोग ही हमारा वजूद है। दिन-रात हमारे खेतों में काम करते हैं। अगर किसी प्रकार की कोई समस्या आ जाती है तो उस समस्या के सामने सबसे पहले यही खड़े होते हैं। यह लोग खेत से जुड़ी हुई हर चिंता और समस्या के सामना करने के लिए तत्पर रहते हैं। दिन-रात, सर्दी-गर्मी, बरसात से फसलों को बचाकर उन्हें धन-धान के रूप में बदल देते हैं और इन्हें बदले में इनके सुख के लिए क्या मिलता है? भूखे पेट रहना, इनका भरण-पोषण भी नहीं होगा तो क्या यह काम कर पाएंगे? गलूरी मुस्कुरा कर बोला- आज मुझे पता चल गया, मारी लड़की लाखों में एक है, बेटी तू सही कहरी। जो कुछ तूने कहा आज के बाद वही होगा।
जया मंद-मंद मुस्कुराने लगी उसकी मुस्कुराहट से आंखों मे चमक आ गई, सभी मजदूर विश्मय में भरी नजरों से जया की ओर देखते थे। मन में यही विचार आ रहा था कि 12 वर्ष की छोटी सी लड़की कितनी उत्तम वक्ता है, उसके पास कितनी अच्छी समझ है। सुंदरता के साथ-साथ कितनी बुद्धिमान है? वास्तव में जया को देवी स्वरूप समझने लगे थे। इतने महान विचार किसी अलौकिक शक्ति के ही हो सकते थे। इस प्रकार के विभिन्न-विचार और कल्पनाओ के वाक्य सभी के दिमाग में घूम रहे थे। अपने पिता जी से संतुष्ट होकर जया, कल्पना के पास चली गई। कल्पना बहुत डरी हुई थी। वैसे वह बार-बार आंखें चुरा रही थी फिर कंप-कपाती आवाज से लड़-खडाती हुई कल्पना ने कहा- तुम्हारे लिए तीतली पकड़ी थी उड़ गई, दांटोकी तो नहीं।
जया ने मित्र प्रेम से ओतप्रोत होकर कहा- और पकड़ेंगे, इसमें डरने की क्या बात है। तुम बहुत अच्छी हो मेरे साथ पढ़ा करना। दोनों एक साथ रहेंगे और मुझे पता लग गया कि तुम बहुत अच्छा गाती भी हो।
कल्पना ने शांत स्वर से कहा- कभी-कभी।
जया ने निवेदन पूर्ण कहा- हमें भी गाकर सुनाओ।
कल्पना ने कुछ मुंह बना कर कहा- आज नहीं फिर कभी।
इसी अंतराल में माधुरी ने जया को स्नेह पूर्ण आवाज लगाकर बुला लिया। कई दिनों तक जया गांव में चर्चा का विषय बनी रही। कई लोग उसे इस बदलाव का कारण मानते थे। कई लोग उसे आलौकिक शक्ति समझ रहे थे। लोगों के दिमाग में तरह-तरह के विचार और कल्पनाएं थी। लेकिन जया ने मेहनतकश मजदूर लोगों को एक राहत का अहसास कराया था। मजदूर वर्ग जया के प्रति समर्पित हो गया था। बल्कि यूं कहिए कि जया के प्रति एक सम्मान उनके मस्तिष्क में घर कर गया था। उनकी आत्माओं से जया के लिए शुभाशीष निकलते थे। सभी ने जया को मन से आशीर्वाद दिए थे और आश्चर्य था। सब कहते भी थे गलूरी के यहां किसी देवी का अवतरण हुआ है। इस प्रकार के सम्मान को पाकर, लोगों की आंखों में अपने प्रति इतना आदर और सम्मान मिलने के बाद गलूरी और माधुरी का हृदय गदगद हो उठा। उन्हें आत्म संतुष्टि का एक विशेष एहसास हो रहा था। इसके पीछे वास्तविकता यही थी की जया को सुंदर होने के साथ-साथ अत्यंत गुणवान और असाधारण व्यक्तित्व की स्वामित्तव प्राप्त था। उसमें दया-करुणा कूट-कूट कर भरा था। प्रबल बुद्धि होने के कारण अल्प आयु में ही जया ने अपार ख्याति प्राप्त कर ली थी। आसपास के गांव में दूरदराज लोगों तक जया के द्वारा किए गए कार्य सराहना पा रहे थे। साथ ही जया विद्यालय में अपनी कक्षा में सर्वोत्तम विद्यार्थी के रूप में प्रतिस्थापित भी हो रही थी। कभी-कभी तो अध्यापक भी असमंजस में पड़ जाते थे कि इस प्रकार की प्रतिभा और दृष्टि अवलोकन असामान्य ही है। यह एक सामान्य व्यक्ति की पहुंच से बाहर होते हैं। इसी के चलते जया कभी विद्यालय में कोई डांट नहीं खाती थी। उसके साथ अध्यापकों का, आचार्यों का व्यवहार इतना विनम्र और आदर पूर्ण था कि जया को कोई भी विषय अथवा प्रश्न् दुविधा में नहीं डाल सकता था।
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कल्पना ने जैसे ही कमरे के भीतर प्रवेश किया चारों तरफ बैठने के लिए मुढ्ढे पड़े हुए थे। एक मुढ्ढे पर जय बैठी थी। कल्पना ने जया की तरफ देखा। जया ने खड़े होकर बड़े स्नेह के साथ कहा- आओ-आओ डरो नहीं, यहां बैठो। अभी तो 3:30 ही बजे हैं मैंने तुम्हें 4:00 बजे बुलाया था। कल्पना भयभीत सी बोली- कहीं देर ना हो जाए, जल्दी आ गई। जाऊं बाद में आ जाऊंगा।
जया ने रौब से कहा-क्यों? कल्पना ने उसी मुद्रा में कहा- तुम्हे मेरी वजह से कोई दिक्कत ना हो जाए। जया ने विनम्रता से कहा- कोई बात नहीं बैठ जाओ, खाना खाकर आई है, या यूं ही चली आई है?
कल्पना ने उसी मुद्रा में गर्दन हिलाते हुए कहा-हूं।
इतना ही कह पाई थी उसने पलके उठा कर वातावरण को नापने की भांति दृष्टि घुमा कर कहा- आचार्य मारेंगे तो नहीं, पहली बार पढ़ने आई हूं,इसलिए थोड़ी सी डर रही हूं।
जया ने मित्र स्नेह की मुद्रा में कहा- डरने की कोई जरूरत नहीं है, आचार्य तुम्हें खा नही जाएंगे, हम भी तुम्हारे साथ ही हैं और वैसे भी तुम बहुत बुद्धिमान हो, आचार्य को बहुत ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।
कृत:- चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भय-पुत्र'
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