पतित-पावन 'उपन्यास'
गतांक से...
माधुरी की वाणी से निकले शब्द स्वयं माधुरी को भी पीड़ा पहुंचा रहे थे, चुभ रहे थे, गलूरी भी अक्समात दुख से द्रवित हो उठा था। कुछ समय पश्चात सभी ने ठंडी सांस ली। किंतु सभी आश्चर्यचकित और परेशान थे कि कहीं यह शब्द सच न हो जाए। किंतु सत्य तो अटल होता है उसे बदलना संभव नहीं होता है। इसी बात का डर सबको सता रहा था, अनायास ही चिंता की लकीरें माथे पर खिंच गई थी। इसके विपरीत एक बात बहुत महत्वपूर्ण थी। परिवार के सभी लोग शिक्षित थे और इतने अधिक अंधविश्वासी नहीं थे कि अकारण ही किसी भी बात को स्वीकार करें या उस पर विश्वास करें। सभी ने एक दूसरे की आंखों में देखकर एक दूसरे को समझने का प्रयास किया। बिना कुछ कहे ही सब लोग चुपचाप इस बात को भूल जाना चाहते थे और हुआ भी यही, सब लोग इस बात को भूल गए या यूं कहिए इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पास ही के प्राथमिक विद्यालय में पड़ोस में रहने वाले मास्टर रामपाल भूगोल के अध्यापक थे। विद्यालय केवल आठवीं कक्षा का ही था तथा जया ने वही सातवीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। जया होनहार, हूनरबाज बुद्धिमान होने के साथ-साथ कक्षा में सबसे अधिक प्रभाव रखती थी। उसके सहपाठियों मे यदि कोई उसको संतुष्ट करने वाला था वह केवल स्वराज ही था और उन दोनों की पटती भी थी। इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि दोनों ही पढ़ाई के प्रति समर्पित और अनुशासित थे। इसी कारण उन दोनों के बीच अच्छी-खासी मित्रता भी हो गई थी। जया की तीव्रबुद्धि को देखकर आचार्य भी चकित रहते थे। वह एक बार में ही किसी पद,गध, काव्य को कंठस्थ कर लेती थी और उसके भावार्थ को बार-बार अध्ययनरत करती रहती थी। जिसके कारण वह सामान्य तौर पर वास्तविक अवलोकन कर रही थी। प्रत्येक प्रश्न का सर्वप्रथम उत्तर देना उसकी स्वभाविकता हो गई थी। दुर्लभ-दुर्लभ प्रश्नों का कठिन परिश्रम करके हल करना, उसका स्वभाव बन गया था। मिजाज मे आज भी व्यग्रता और लगन दोनों ही बनी रहती थी। यह बच्ची आने वाले समय में शिक्षा पद्धति में विद्वान पद ग्रहण करेगी। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली ही इतनी स्वच्छ और सुंदर थी। जया अभी तक अपनी हवेली में घूम रही थी। प्रातकाल विद्यालय जाना, फिर अध्यापक घर पर पढ़ाते थे, ढेर-सी पढ़ाई करने के कारण उसे बाहरी दुनिया का अनुमान भी नहीं था। किताबों में उलझे रहना, हवेली के चक्कर काटना, यही उसका दिनचर्या बन गया था। हालांकि इसके विपरीत उसको बाहरी सामाजिक ढांचे की किसी प्रकार की कोई जानकारी नहीं थी। अब अंतिम परीक्षा-पत्र हल करने के बाद जया अपने घर आई। किताबे एक और रख दी क्योंकि अब ग्रीष्म काल का अवकाश प्रस्तावित हो गया था। अब 40 दिन तक किताबों से मोह रखना मूर्खता से अधिक और कुछ भी नहीं था।
वैसे तो कई कुप्रथा समाज में आज भी प्रचलित है। यदा-कदा उनका विरोध होता रहता है। जिसमें से एक प्रथा तलाक़ पर वर्तमान सरकार ने अधिनियम पारित करने के बाद तलाक प्रथा को खत्म करने का कार्य किया है। हालांकि अभी भी इस्लामिक धर्म के मानने वाले इस कानून का विरोध कर रहे हैं। परंतु वह सभी स्त्री के प्रति अत्याचार और पीड़ा को समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। किसी भी धर्म अथवा मजहब में क्या किसी को पीड़ित करने का कोई अधिकार दिया गया है या किसी के शोषण का कोई अधिकार दिया गया है? नहीं दिया गया है। इस प्रकार का कोई भी उदाहरण किसी भी धर्म में नहीं है। बावजूद इसके भी इस प्रकार की कुप्रथा आज भी समाज में प्रचलित है और विरोध के बाद भी उनका संचालन हो रहा है। इसी प्रकार से उस काल में और भी बहुत सारी ऐसी ही प्रथा थी। परंतु उस समय के अनुसार कम थी। क्योंकि कुप्रथाओं का भी एक दायरा था उसकी सीमा थी। अशिक्षित और सामाजिक ज्ञान न होने के कारण अल्प ज्ञान में लोग इस प्रकार के निर्णय कर लिया करते थे। लेकिन आधुनिकता के 'शहतीर पर खड़े' लोग अब इस प्रकार का निर्णय नहीं करते हैं, चाहे वह किसी भी धर्म या मजहब से जुड़े हो। उस समय लड़कियों को पढ़ाना भी एक अपराध था। यदि कोई बहुत पढ़ा-लिखा चिट्ठी भी पढ़ ले तो यह भी गनीमत थी।
लेकिन माधुरी ने ऐसी कुप्रथा को गांव के और समाज के विपरीत रखकर जया को पढ़ने के लिए स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी। उसने जया को पोस्ट ग्रेजुएट कराने की सोच रखी थी। साथ-साथ चतुरसिंह भी छठी कक्षा में उत्तीर्ण हो गया था। सो जया की बाधाएं भी हटती जा रही थी, किंतु गर्मियों की छुट्टी कैसे बीते 2 दिन मामा के यहां भी रहे। अब मामा के यहां इतनी सुख सुविधाएं देखकर 2 दिन में ही "पेट मुंह में आ गया"। अभी तो बहुत सारा समय बाकी था। उस समय को किस प्रकार व्यतीत किया जाए? इस पर विचार ने की क्षमता है नहीं थी।
प्रातः काल में उठकर जाने वहीं सामान्य तौर पर पाया। घर में मां चतुर और अघोरी सभी खेत में मां का रोजमर्रा का कार्य था खाना बनाना, खेत में ले जाना। इस प्रकार के कार्यों से जया का मन ऊब गया था। जया ने आज पीले पीले रंग के वस्त्र पहने थे और किसी 'अधखिले फूल की तरह' उसका रंग-रूप उस चोले में खिलखिला उठा था। जया कौर ने अपनी मां से धीरे से कहा- मैं भी खेत में चलूं! माधुरी ने जया को अनसुना कर दिया- क्या करोगी? निवेदन के साथ कहा- मुझे देखने दो, तुम्हारे साथ ही चली जाऊंगी, तुम्हारे साथ ही आ जाऊंगी। माधुरी ने कहा- ठीक है।
कुछ समय पश्चात दोनों खेत में चले गए। माधुरी ने घूघंट मे ही कहा, क्योंकि घूंघट एक पारंपरिक संस्कार था, जिसकी मान्यता बहुत अधिक थी, उस मान्यता के आधार पर ही माधुरी घर से निकलने के बाद हमेशा घूंघट में रहती थी। उसने बड़े शांत स्वर से कहा- हां यही से हमारे खेत की सीमा शुरू होती है, सामने चौराहा है वहां तक सब हमारे खेत है। जया ने पूर्व मुद्रा में पूछा- मां!ये लड़की कौन है, हमारे खेत में क्या कर रही है? माधुरी कोर ने घूंघट उठाकर दृश्य का अवलोकन करने के पश्चात कहा- यह लड़की हमारे खेतों में ही काम करती है, हमारे एक मजदूर रतिराम की लड़की है। यंही खेलती है यंहीं खाती है यंही रहती है। बहुत सुंदर, बहुत अच्छी लड़की है।
जया ने मुंह चुराकर कहा- यह पढ़ती नहीं है तभी तो?
माधुरी कौर ने उत्तर दिया- पहली बात तो यह लोग लड़कियों को पढ़ाते नहीं है और दूसरी बात इनके पास इतना धन भी नहीं है कि लोग अपने बच्चों को अच्छे से पढ़ा सके। जया ने उदारता से पूछा- जब तुम चतुर को पढ़ाती हो। माधुरी मैं तो चाहती हूं लेकिन तेरे ताऊ की तरह खेती करेगा और चतुर कहीं नौकरी करेगा। जया ने अज्ञानता वश पूछा- यह नौकरी क्या होता है? माधुरी ने रूखे पन से ही उत्तर दिया- जब बच्चे बड़े हो जाते हैं या कोई भी व्यक्ति जब बड़ा हो जाता है, तो उसको कोई ना कोई काम तो करना ही होता है। जिससे घर परिवार का संचालन हो,पालन-पोषण रस्में रिवाज, इन सब को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। धन उपार्जन करने के लिए कुछ ना कुछ काम करना होता है। जिसे हम साधारण भाषा में नौकरी कहते हैं। जया ने हतप्रभ होकर पूछा-शादी क्यों होती है? माधुरी ने कहा- परिवार को आगे बढ़ाने के लिए, वंश के संचालन के लिए, जीवन-यात्रा में प्रत्येक मनुष्य को एक साथी की आवश्यकता होती है। इसी कारण समाज में यह एक तरीका, इस यात्रा को पूर्ण करने के लिए उपयोग किया है। जिसे हम विवाह भी कह सकते हैं। जया ने विनम्रता के साथ निवेदन पूर्ण कहा- कृपया करके उस लड़की से मिल सकती हूं। माधुरी- ठीक है लेकिन संभल कर जाना और कहीं मत जाना।
जया, कल्पना की ओर बढ़ने लगती है। कल्पना हाथों में एक तितली को पकड़ लेती है। उसके रंगों को निहारती है, उसके पंखों को खोल कर, उसके रंग गिनती है।तभी उसकी नजर उसकी तरफ आ रही जया पर पड़ती है। एक क्षण के लिए कल्पना स्तब्ध हो गई। उसकी नजरें जया पर ठहर गई। उसने तितली को अपने हाथों की कैद से आजाद कर दिया और बेचैनी से अपनी ओर आने वाली जया को एकटक देखने लगी। कुछ तो ऐसा था जो इस दृश्य में आकर्षण पैदा कर रहा था। जया और कल्पना एक दूसरे के प्रति इस प्रकार आकर्षित हो रही थी। जैसे जमीन और आसमान एक दूसरे से मिलने के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन फिर भी उनका कोई छोर नहीं होता है।....
कृतः- चंद्रमौलेश्वर शिवांशु 'निर्भय-पुत्र'
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