सोमवार, 30 दिसंबर 2019

विचारधारा-नेतृत्व के दोराहे पर खडी कांग्रेस

पूजा सिंह 


नई दिल्ली। कांग्रेस अपना 135 वां स्थापना दिवस एक ऐसे समय पर मना रही है जब वह विचारधारा और नेतृत्व, दोनों मामलों में दोराहे पर खड़ी है। विचारधारा का मामला तो महाराष्ट्र में शिवसेना से गठबंधन कर सरकार बनाने के बाद से थोड़ा नरम पड़ गया है, किंतु नेतृत्व का मामला अभी भी उलझा हुआ दिख रहा है। एक तरफ जहां अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी अपने पुत्र राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए उत्सुक नजर आती हैैं, वहीं आम कांग्रेसी नेताओं में एक ऐसी सोच है कि अभी सोनिया गांधी ही कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभाले रहें। कांग्रेसी नेताओं का यह भी मानना है कि दिल्ली में विधानसभा के चुनाव के बाद ही कांग्रेस के नेतृत्व के मुद्दे को देखने और समझने की कोशिश की जानी चाहिए। दिल्ली में अगले महीने ही विधानसभा हो सकते हैैं।
कांग्रेसी नेता राहुल को दोबारा अध्यक्ष के लिए तो तैयार हैं, लेकिन काम के तरीके में चाहते हैं बदलाव…
आज कांग्रेस के अंदर जो हलचल मची है उसका एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए कांग्रेसी नेता इस बात के लिए तो बिल्कुल तैयार नजर आ रहे हैैं कि वह राहुल गांधी को ही दोबारा अपना अध्यक्ष चुन लें, लेकिन इसके साथ ही वे राहुल गांधी के कामकाज करने के तौर-तरीके में थोड़ा बदलाव भी देखना चाहते हैं। उनकी एक-एक उम्मीद यह भी है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी, दोनों जल्द ही कांग्रेस कार्य समिति का निष्पक्ष चुनाव कराएंगे। देखना है कि ऐसा हो पाता है या नहीं?
दरअसल कांग्रेस में कार्य समिति के चुनाव हमेशा एक बहुत बड़ी चुनौती रहे हैं। वर्ष 1991 में जब पीवी नरसिंह राव कांग्रेस अध्यक्ष बने थे तो उन्होंने तिरुपति में अप्रैल 1992 में चुनाव कराए थे। इसके अलावा दूसरी बार सीताराम केसरी ने कोलकाता में अगस्त 1997 में कांग्रेस कार्य समिति के चुनाव कराए थे। कांग्रेस जन यह चाहते हैं कि कार्य समिति के चुनाव के जरिये कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की भूमिका तय हो जानी चाहिए। खासतौर से उन नेताओं के लिए जो नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य नहीं हैैं।
सोनिया गांधी के तकरीबन 20 वर्ष के लंबे अध्यक्षीय कार्यकाल में कांग्रेस में महत्वपूर्ण पद पर ऐसे लोग मौजूद रहे हैैं जो उनके पसंदीदा थे। हालांकि राहुल गांधी ने भी उसी विधि को अपनाते हुए महत्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को बिठाने की कोशिश की, लेकिन उसमें वह पूरी तरह से कामयाब नहीं हुए थे। अब कांग्रेस के जो वरिष्ठ नेता हैं उन्हें डर है कि राहुल गांधी जब कभी वापस आएंगे तो कहीं वह पार्टी में बड़े पदों पर जैसे कार्य समिति के सदस्य, पार्टी के महासचिव या प्रदेश अध्यक्षों को अपनी पसंद से मनोनीत करना न शुरू कर दें।
जाहिर है कि यदि कार्य समिति का चुनाव होगा तो उसमें वरिष्ठता का एक तरीके से क्रम तय हो जाएगा। कांग्रेस कार्य समिति चुनने का अधिकार ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के 1500 सदस्यों को है जो पूरे देश के विभिन्न राज्यों से आते हैं। कांग्रेस के संविधान के अनुसार कांग्रेस कार्य समिति 24 सदस्य की होनी चाहिए। जिसमें 12 सदस्यों का चुनाव होना चाहिए और 12 सदस्यों को कांग्रेस अध्यक्ष मनोनीत कर सकता है। इन 12 सदस्यों में अल्पसंख्यक, महिलाएं और कमजोर तबके के लोग होते हैं।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पार्टी के अंदर से उठती आवाजों का संज्ञान लेना चाहिए…
एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस कार्य समिति के चुनाव बहुत बार इस बिना पर नहीं किए जाते हैं कि उससे पार्टी में बिखराव हो सकता है और आपसी झगड़े बढ़ सकते हैं। फलस्वरूप कार्य समिति ही कांग्रेस अध्यक्ष को अधिकृत कर देती है कि वह समस्त 24 सदस्यों को मनोनीत कर दें, लेकिन आज पार्टी के अंदर से कुछ आवाजें उठ रही हैं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पार्टी के अंदर से उठती इन आवाजों का संज्ञान लेना चाहिए।
झारखंड विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस में आशा की एक नई किरण आई है। यहां झारखंड मुक्ति मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी कांग्रेस को 16 सीटें मिली हैैं। झारखंड चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि यदि केंद्रीय नेतृत्व पार्टी में सबको साथ लेकर चले तो राज्यों में नतीजे बेहतर हो सकते हैं।
हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी गांधी परिवार की बहुत सक्रिय भूमिका नहीं थी। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा, दोनों ने प्रचार में हिस्सा तो लिया था, लेकिन गठबंधन के अधिकतर काम हेमंत सोरेन के जिम्मे ही थे। कांग्रेस पार्टी की जिम्मेदारियों के निर्वाह का जिम्मा वहां मौजूद कांग्रेस के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह और दूसरे जमीनी नेताओं पर था। कामकाज की इस परिपाटी में कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा कामयाबी मिली है। उम्मीद है कि यह मॉडल आने वाले समय में रहेगा और चलेगा।
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का काम यह है कि वह सबको साथ लेकर चले और जो राष्ट्रीय मुद्दे हैं उस पर एक स्पष्ट नीति तय करे। कार्य समिति के चुनाव होने से उसके जो सदस्य होंगे उनसे भी ऐसी आशा की जाती है कि वे संवेदनशील मुद्दों पर अपनी बात रख रखेंगे। कांग्रेस के अंदर फैसला लेने का अभी जो अधिकार है वह सोनिया गांधी के पास है। उनके सलाहकारों का पार्टी के अंदर या बाहर लोकप्रियता या जनाधार जानने का कोई पैमाना नहीं है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी कांग्रेस कार्य समिति का चुनाव करने के लिए तैयार हैं? क्या कांग्रेस दिल्ली में भी एक ऐसी रणनीति अपनाएगी जहां वह पार्टी हित को सब कुछ न मानकर भाजपा के खिलाफ एक गठबंधन तैयार करेगी या फिर उसकी कोई और रणनीति होगी? यह समय ही बताएगा, लेकिन यह समझना आवश्यक है कि कांग्रेस जन और नेहरू-गांधी परिवार का रिश्ता बहुत दिलचस्प ।
एक आम कांग्रेसी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अपनी तमाम शक्ति देने को तैयार है। वह उनकी बातों को मानने को भी तैयार रहता है और उनके निर्देश पर अपना सब कुछ गंवाने को तैयार रहता है। वह कुछ पाने की भी इच्छा रखता है, लेकिन उसकी सिर्फ एक ही चाह है कि कांग्रेस सत्ता से दूर न रहे। यह मंत्र सोनिया गांधी बखूबी समझती हैैं। क्या राहुल गांधी यह कर पाएंगे? कांग्रेस का अध्यक्ष बनना तो आसान है, लेकिन उसके साथ इंसाफ कर पाना एक बहुत बड़ी चुनौती है, जो राहुल गांधी को पूरा करना है। क्या वह इसके लिए तैयार हैैं? यह वह सवाल है जिसका जवाब आने वाले दिनों में ही सामने आएगा।


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