नई दिल्ली! भारतीय जनता पार्टी को भाजपा के आदर्श पुरूष श्यामा प्रसाद मुखर्जी के द्वारा 1951 में जनसंघ की नीव को ही उदय माना जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। 1977 में आपातकाल की समाप्ति के उपरांत जनता पार्टी को बनाए जाते समय जनसंघ सहित अन्य दलों का इसमें विलय कर दिया गया था। जनता पार्टी उस दौर में इतनी लोकप्रिय (या यह कहा जाए कि कांग्रेस से जनता बुरी तरह आज़िज आ चुकी थी) हो चुकी थी कि 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस को जनता पार्टी के द्वारा करारी शिकस्त दी गई। 1980 में भारतीय जनता पार्टी का निर्माण हुआ। इसके बाद भाजपा ने एक के बाद एक सौपान तय किए, किन्तु इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक में भाजपा का जनाधार जिस तरह से घटता दिख रहा है उसे देखते हुए भाजपा को अब अपनी स्थिति का आंकलन करते हुए चिंतन मनन करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है।
हाल ही में महाराष्ट्र में भाजपा को जिस तरह का यू टर्न लेना पड़ा उससे भाजपा की साख बुरी तरह प्रभावित हुई है। सूबे में भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की युती औंधे मुंह गिरी और इसके बाद कांग्रेस, राकांपा और शिवसेना ने मिलकर सरकार का गठन कर लिया है।
शिवसेना के द्वारा भाजपा से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री का पद मांगा जा रहा था। भाजपा के रणनीतिकार संभवतः महाराष्ट्र के सियासी समीकरणों को भांप नहीं पाए और उनके द्वारा राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया। महज एक दिन में ही यह सरकार ढेर हो गई।
शिवसेना के उद्धव ठाकरे की मांग अगर भाजपा के द्वारा मानी जाकर सरकार को बना लिया जाता और ढाई साल बाद जैसी भी परिस्थितियां निर्मित होतीं या की जातीं उसके बाद उपजने वाली परिस्थितियों में शिवसेना का साथ लिया जाता या छोड़ दिया जाता यह तो भविष्य के गर्भ में था पर कम से कम ढाई सालों में भाजपा अपने आप को एक बार फिर सूबे सहित देश में मजबूती के साथ खड़ा कर सकती थी।
कहा जाता है कि सियासी बियावान में कोई भी स्थाई मित्र या शत्रु नही होता है। परिस्थितियों के हिसाब से सियासी दल अपने मित्र या शत्रु तय करते हैं। महाराष्ट्र की सियासत इसका नायाब उदहारण मानी जा सकती है। वैचारिक मतभेद या मनभेद होने के बाद भी तीनों दल एक साथ खड़े दिख रहे हैं सूबे में।
महाराष्ट्र में सरकार में शामिल दल अब मुख्यमंत्री का पद नहीं चाह रहीं है। यह बात शिवसेना के लिए राहत भरी मानी जा सकती है। इसके अलावा कांग्रेस और राकांपा के द्वारा उप मुख्यमंत्री के साथ मलाईदार पदों पर कब्जा ही चाहा जा रहा है, जो उद्धव ठाकरे के लिए मुश्किल बात नहीं है।
इस तरह से बेमेल गठबंधन की सरकार महाराष्ट्र में बन तो गई है पर यह कितने दिन चलेगी यह कहना अभी जल्दबाजी ही होगी। आने वाले समय में अगर इस गठबंधन में खींचतान आरंभ हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भाजपा को अब महाराष्ट्र की सियासत पर बारीक नजर रखकर भविष्य को भांपते हुए कदम उठाने की जरूरत है।
ठेठ कांग्रेसी रहे शरद पंवार ने कांग्रेस का दामन सोनिया गांधी के विदेशी मूल मुद्दे को आधार बनाकर छोड़ा था। मराठा क्षत्रप के कदम तालों को पहचानना देश के सियासतदारों के बस की बात नहीं दिखती। शरद पंवार के द्वारा शिवसेना के आदर्शों में कथित तौर पर बदलाव करवाते हुए उसे भी धर्म निरपेक्ष रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया है।
शिवसेना के द्वारा जिस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं उसे देखकर लग रहा है कि सत्ता की मलाई चखने और मुख्यमंत्री पद की चाहत में शिवसेना के आलंबरदार अब शरद पंवार के जाल में इस तरह उलझ चुके हैं कि शिवसेना अपने मूल उद्देश्यों को बिसार दिया है।
महाराष्ट्र की नई त्रिफला सरकार के द्वारा जिस तरह का न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया है वह गैर भाजपाई सरकारों के लिए एक नज़ीर बन सकता है। सरकार के द्वारा किसानों की पूरी कर्जमाफी, एक रूपए में डाक्टरी इलाज, दस रूपए में खाना, गंदी बस्तियों के निवासियों को 500 वर्ग फीट का निशुल्क भूखण्ड, लोकल लोगों को नौकरियों में विशेष आरक्षण आदि जैसी बातों को इसमें शामिल किया गया है।
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