जब-तब वन्य जीवों के रिहायशी क्षेत्रों में दस्तक देने की खबरें आ रही हैं। कभी हाथी आ रहे हैं तो कभी बाघ जैसे खूंखार वन्यजीव भी इन क्षेत्रों में आमद दे रहे हैं। शिकार की घटनाओं की जानकारी भी मिल रही है। समाचार माध्यमों के अलावा सिवनी में घटित होने वाली शिकार की घटनाओं को मोबाईल में भी कैद किया जा रहा है और उसको वायरल भी किया जा रहा है लेकिन संबंधित विभाग की आँखों पर मानो पट्टी ही बंधी हुई है।
समाचार माध्यमों में यदा-कदा शिकारियों की धड़-पकड़ की तस्वीरें भी दिख जाया करती हैं लेकिन अनुपातिक दृष्टि से देखा जाये तो वन विभाग की अपेक्षा शिकारी ज्यादा सक्रिय हैं और वे रात के अंधेरे में ही नहीं बल्कि दिन के उजाले में भी वन्य जीवों के शिकार करने से नहीं चूकते हैं। वन विभाग सिर्फ कागजी कार्यवाही में ही शायद उलझा हुआ है जो उसे मैदानी घटनाक्रम की जानकारी नहीं है। वन्य क्षेत्रों में शिकारी किस तरह से अपनी कारगुजारियां कर रहे हैं यदि इसकी जानकारी ही वन विभाग को नहीं होगी तो वे इससे निपटने के लिये रणनीति कैसे बनायेंगे।
वन विभाग की गश्ती पर भी सवालिया निशान उठना लाजिमी हैं क्योंकि वन विभाग के गश्ती दल को कभी भी शिकारियों की टोह तो नहीं मिलती है बल्कि उन्हें शिकार करने के लिये बिछाये गये करंटयुक्त तार भी नहीं दिखायी देते हैं जिसकी जद में आकर वन्य जीव की मौत हो जाती है। आखिर इस तरह की गश्ती के क्या मायने रह जाते हैं जब न तो शिकार की घटनाओं पर अंकुश लग पा रहा हो और न ही लकड़ी की अवैध तस्करी पर ही लगाम लगायी जा सक रही हो।
सिवनी के जंगलों में पाये जाने वाले हिरण जैसे वन्य जीव क्या वन विभाग की संपत्ति नहीं हैं? वन विभाग आखिर इस बात पर चिंतन क्यों नहीं करता है कि वन्य जीव जंगल से बाहर की ओर रूख करने पर क्यों मजबूर हो रहे हैं जो वे आसानी से शिकार बन जाते हैं। वन विभाग से अपेक्षा ही की जा सकती है कि वह अपनी कार्यप्रणाली पर ईमानदारी के साथ विचार करे ताकि वन्य जीव उनके खुद के ही क्षेत्र में विचरण करें और उससे बाहर निकलने के लिये वे बाध्य न हों, इसके साथ ही शिकार जैसी घटनाओं पर भी अंकुश लगाये जाने के लिये गंभीरता के साथ मंथन किया जाना चाहिये।
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