बुधवार, 13 नवंबर 2019

पराविद्या की दीक्षा

गतांक से...
 मेरे प्यारे मुझे स्मरण आता रहता है, उन्होंने कहा कि जब यज्ञ में क्रियाकलाप का आयोजन होता है। यज्ञ अपनी आभा में विचित्र बना रहता है, पवित्रतम बना रहता है। उन्होंने यज्ञ के लिए जो आज्ञा दी, तो महर्षि विश्वामित्र ने वहां से गमन किया, विचार किया। मेरे समीप ब्रह्मचारी जन इस विद्या का अध्ययन करने वाले हैं, ऋषि विश्वामित्र वहां से भ्रमण करते हुए, उस स्थली तक पहुंचे। जहां राजा दशरथ विद्यमान थे। राजा दशरथ ने ऋषि को दृष्टिपात किया। अपने आसन को त्याग करके, ऋषि के चरणों की वंदना की और वंदना के पश्चात उन्होंने कहा। ऋषिवर यह मेरा सौभाग्य है कि आप यहां गमन कर रहे हो। हमारे यहां वासित हो रहे हो। प्रभु यह कैसा आपका नृत्य है? उन्होंने कहा भगवान ऐसा विचार मन में आता रहता है, तो राजा ने कहा प्रभु आज आपका आगमन कैसे हुआ? सब ऋषि-मुनियों की एक योगिता उनके हृदय में समाई है। कि दंडक वन में यज्ञशाला, धनुर्विद्या का अभ्यास किया जाए। मेरे राजा ने कहा "संभव" यज्ञ की रक्षा होनी चाहिए। रक्षा बहुत अनिवार्य है। यदि यज्ञ की रक्षा नहीं होती, तो यह अपने में अधूरे परिणत हो जाता है। बेटा यह क्या है? वह है, जिसे प्राणी अपने में समाधिस्थ कर देता है। तो वह यज्ञ का अधिकृत बन जाता है। हमारे यहां दो प्रकार के यज्ञ माने गए हैं। एक यज्ञ शुद्धि यज्ञ कहलाता है। वास्तव में यज्ञ बहुत प्रकार के हैं। परंतु संक्षिप्त में दो प्रकार के यज्ञ, एक-दूसरे में संगठित रहता हुआ, विचारवान बनता हुआ, जो अपनी आत्मा को प्रसन्न कर रहा है। वह प्रथम यज्ञ की प्रतिभा कहलाती है। उन्होंने धनुष यज्ञ के लिए बड़ा बल दिया और यह कहा है। विश्वामित्र तुम धनुष यज्ञ परायण हो जाओ। उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया और स्वीकार करने के पश्चात विचार में आता रहा। वेद का आचार्य यह कहता है कि जब अमृतमान राजा ने यह कहा प्रभु में आपके यज्ञ को पूर्ण कर आऊंगा। मुझे आप आज्ञा दीजिए। महर्षि विश्वामित्र ने कहा राजन यह यज्ञ तो राजकुमारों का है। राजा दशरथ और विश्वामित्र की चर्चाएं हो रही थी। हमारे यहां नियमावली पुरातन काल से ही बनी हुई है। जैसे न्यायालय में पुरुष न्याय करता है। उसी प्रकार दिव्या भी न्यायालय में न्याय करती रही हैं और उन सब का सहयोग रहा है। वह अपने में अपनेपन का भान करती हुई। नाना प्रकार के लोगों का विश्लेषण करती और विचार भी देती रही है। मैं कुछ विवेचना देना नहीं चाहता हूं। विचार यह है कि यज्ञ अपने में बड़ा उत्तम क्रियाकलाप है। यह श्रेष्ठतम कहलाता है। जब विश्वामित्र ने यह उपदेश यज्ञ को संपन्न कराने का, अपना यह क्रियाकलाप बनाया। तब बेटा देवियों ने जब यह सुना कि आज यहां ऋषि विश्वामित्र का आगमन हो रहा है। बारी-बारी से ऋषि के चरणों की वंदना की। सब को आशीर्वाद देते हुए आचार्य अपने आसन पर विद्यमान हो गए। देवियों ने कहा कि भगवान यह हमारा कैसा सौभाग्य है,भगवान आप भयंकर वनो से आए हैं और आने की कोई सूचना नहीं दी। उन्होंने कहा हे दिव्या, हमारा यह सौभाग्य है,जो हम इस प्रकार से भ्रमण करते हैं। उन्होंने कहा प्रभु आज्ञा दीजिए क्या आज्ञा है "अमृतांम भू: अस्तातं वर्णन दण्डधनं अस्ति दिव्याम्"।


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