"इतने अभियान" (संपादकीय)
राष्ट्र के विकास और निर्माण में सरकार कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती है। जिसमें सरकार के द्वारा ढेर सारा धन भी खर्च किया जाता है। इसी आशा के साथ सरकार नए-नए अभियानों का संचालन करती रहती है। अभियान का मूल उद्देश्य राष्ट्र के निर्माण और विकास से ही जुड़ा होता है। परंतु अभियान का वास्तविक स्वरूप इतना बदल जाता है कि धरातल तक आते-आते अभियान अपने उद्देश्य से भटक जाता है। अधिकांशतः अभियानों के पीछे सरकारी धन का दुरुपयोग किया जाता है। अभियानों के प्रचार-प्रसार को सरकारी नीति के विरुद्ध, दलगत विचारधारा से जोड़ने का प्रयास, अभियान को दो राह पर चलने को विवश कर देता है। जिसके कारण अभियान वास्तविक गति से भटक जाता है और व्यापकता के मानको से इतर हो जाता है। विशेष बात यह है कि अभियान सामाजिक कुरीतियों, बुराइयों को प्रभावित करने के उद्देश्य से ही चलाए जाते हैं। इसी कारण हजारों अभियानों का अस्तित्व स्थापित करने के प्रयास किए गए। कई अभियान अपने उद्देश्य के चरम तक पहुंचने में सफल भी रहे। जिसमें "सर्व शिक्षा अभियान" देश की रीड को सदृड करने वाला एकमात्र अभियान है।सरकार भी चाहती है कि देश में सभी को शिक्षा प्रदान हो। किंतु कई 'हराम खाऊ' अधिकारियों और भ्रष्ट 'सफेद पोशो' के कारण, आज 21वीं शताब्दी में भी कितने ही बच्चे शिक्षा से वंचित रह रहे हैं। हमारे सामाजिक ताने-बाने को स्थिर करने वाले विद्वान नागरिकों को भी इसकी विशेष चिंता नहीं है। गरीब, निराश्रित, पिछड़े बच्चों को शिक्षा प्राप्त कराने में इतनी उदारता क्यों है? धर्म,वर्ग ,समूह, दल आदि से हटकर मानवता के नाते वंचितों को अभियान से जोड़कर शिक्षा प्राप्त कराने में हमें अपने दायित्व का आभास नहीं होना चाहिए? जबकि सभी जानते हैं कि 'अशिक्षित मानव, पशु समान' बताया गया है!
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राधेश्याम 'निर्भय पुत्र'
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