विषाणुओं के अध्ययन की एक मुख्य प्रेरणा यह तथ्य है, कि वे कई संक्रामक रोग पैदा करते हैं। इन रोगों में जुखाम, इंफ्लुएन्ज़ा, रेबीज़, खसरा, दस्त के कई रूप, हैपेटाइटिस, येलो फीवर, पोलियो, चेचक तथा एड्स तक आते हैं। कई विषाणु, जिन्हें ऑन्कोवायरस कहते है। कई तरह के कैंसर में भी योगदान देते हैं। कई उप-विषाणु कण भी रोग का] का निमित्त है एक उपग्रह विषाणु। विषाणु जिस शैली में रोग करते हैं, उसका अध्ययन विषाण्वीय रोगजनन या वायरल पैथोजैनेसिस कहलाता है। जिस श्रेणी तक कोई विषाणु रोग करता है, उसे "वायरुलेंस कहते हैं।
जब किसी कशेरुकी जीव की उन्मुक्ति प्रणाली का विषाणु से सामना होता है, वह विशिष्ट रोगप्रतिकारक या एंटीबॉडी का निर्माण करती है, जो विषाणु को बांध कर उसे विध्वंस के लिये विह्नित कर देती है| इन रोगप्रतिरोधकों की उपस्थिति कभि कभि यह जानने के लिये भि जांची जाती है, कि कोई व्यक्ति पूर्व में उस विषाणु से आक्रमित हुआ है या नहीं| ऐसे परीक्षणों में से एक है ऐलाइज़ा या ई एल आई एस ए| विषाणु जनित रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण लाभदायी होता है, जिसमें व्यक्ति के शरीर में प्रतिरोधक तत्व पहले से ही डाल दिये जाते हैं, या उनमें प्रतिरोधकों का निर्माण कराया जाता है| खास तौर पर बनायी मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का भी प्रयोग विषाणुओं की उपस्थिति जाँच हेतु किया जा सकता है, जिसे फ्ल्यूरोसेंस सूक्ष्मदर्शिकी या फ्ल्यूरोसेंस माइक्रोस्कोपी कहा जाता है। विषाणुओं के विरुद्ध कशेरुकियों की दूसरी रक्षा पद्धति है कोशिका मध्यस्थ उन्मुक्ति या सेल मेडियेटेड इम्म्युनिटी जिसमें प्रतिरोधित कोशिकाएं, जिन्हें टी-कोशिका कहते है, कार्यरत होते हैं| शरीर की कोशिकाएं, अन्वरत रूप से अपने प्रोटीन कोशिका का एक छोटा अंश कोशिका की सतह पर प्रदर्शित करतीं हैं| यदि टी-कोशिका को संदेहजनक विषाणु अंश वहां मिलता है, तो उसका होस्ट (आतिथेय) कोशिका मिटा दिया जाता है, व विषाणु विशिष्ट टी-कोशिका बढ़्ती जातीं हैं| यह पद्धति कुछ टीकों द्वारा आरंभ की जा सकती है।
पादप, पशु श्रेणी व कई अन्य यूकैर्योट्स में पायी जाने वाली, एक महत्वपूर्ण कोशिकीय पद्धति, आर एन ए इंटरफेयरेंस, विषाणुओं के विरुद्ध रक्षा कए लिये यथासंभव उपयुक्त है| इंटरैक्टिंग किण्वकों का एक समूह, डबल स्टअंडेड आर एन ए अणुओं (जो कि कई विषाणुओं में जीवन चक्र का भाग होते हैं) पहचानते हैं और फिर उस आर एन ए अणु के सभि सिंगल स्ट्रैंडेड अणुओं को नष्ट कर देते हैं।
हरेक हानिकारक विषाणु एक विरोधाभार प्रस्तुत करता है: होस्ट को नष्ट करना विषाणु के लिये आवश्यक नहीं है| फिर क्यों और कैसे इस विषाणु का विकास हुआ? आज यह माना जाता है, कि अधिकांश विषाणु, अपने होस्ट के भीतर अपेक्षाकृत कृपालु होते हैं| हानिकारक विषाणु रोगों को ऐसे समझा जा सकता है, कि कोई कृपालु विषाणु, जो अपनी जाति में कृपालु है, कूद कर एक नयी जाति में चला जाता है, जो उसकी देखि समझी नहीं है।
ज़ूनोसिस
उदा० इन्फ्लुएंज़ा विषाणु के प्राकृतिक होस्ट सुअर या पक्षी होते हैं, व एड्स को कृपालु मर्कट विषाणु से निकला बताया जाता है। हालांकि कई विषाणुजनित रोगों से बचाव टीकों द्वारा लम्बे समय तक संभव है, विषाणु विरोधी औषधियों का विकास, रोगों के उपचार हेतु, अपेक्षाकृत नया विकास है| पहला ड्रग था इंटरफैरोन, वह पदार्थ, जो कि प्राकृतिक रूप से कुछ उन्मुक्त कोशिकाओं द्वारा संक्रमण दिखने पर उत्पादित होते हैं, व उन्मुक्ति प्रणाली के अन्य भागों को उत्तेजित (स्टिमुलेट) करते हैं।
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