गतांक से...
मेरे प्यारे जब यह वाक्य कहा गया संभव ब्रहे, मुझे ऐसा स्मरण आ रहा है पुत्रों, राम ने कहा कि मैं राष्ट्र को नहीं चाहता। मैं भयंकर वन में जाकर तप करना चाहता हूं। क्योंकि तप से ही मानव का जीवन उन्नत होता है और तप से ही मानव की तमोगुण की तरंगे सतोगुण में प्रवेश कर जाती हैं। इसलिए मैं अपने में तपस्वी बनना चाहता हूं। यह वाक्य उन्होंने स्वीकार कर लिया और स्वीकार करके उन्हीं ने कहा, भरतम् ब्रवहे, हे विधाता भरत, इस राष्ट्र को तुम भोगो। उन्होंने कहा प्रभु मुझे कोई अधिकार नहीं है आप जेष्ठ है। आपका यह राज्य है इसे भोगीए प्रभु। उन्होंने कहा है भरत मैं तपस्या करने जा रहा हूं जब तक मैं तपस्वी नहीं बनूंगा मैं राज्य का अधिकारी नहीं हूं। क्योंकि तप करने के पश्चात ही मानव को राज्य का अधिकार होता है। जब उन्होंने ऐसा कहा उन्होंने कहा तपम ब्रह्मा, महात्मा भरत ने आचार्य से कहा, आचार्यजन इसका निपटारा कीजिए। यह क्या शब्द कह रहे हैं। उन्होंने कहा है राम को पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकूंगा। क्योंकि मैं राष्ट्र का अधिकारी नहीं हूं तो भी मैं तपस्या करूंगा। परंतु देखो उन्होंने उसे शिक्षा दी और शिक्षा देने के पश्चात वह अध्ययन करने लगे। मेरे प्यारे, राम अयोध्या को त्याग कर वन में चले गए और वन में जाकर के तपस्या करने लगे। तपस्या क्या है? देखो दूषित अन्न को पान नहीं करना चाहिए। उसको पान करने का नाम तपस्या है। मुझे स्मरण आता रहता है कि राम ने उसको पान किया। जिस पर किसी का अधिकार नहीं था उसको एकत्रित करके उसका दुग्ध बनाते और अग्नि में तपा करके खरल बना करके उसको पान करते। उन्होंने 12 वर्ष का इस प्रकार कठोर तप करने का निश्चय किया। राम प्रातः काल और सांयकाल तक रात्रि के काल में भी प्रभु के ऊपर मनन करते रहते और यह प्रार्थना करते रहते प्रभु तेरा कैसा उधरवा जगत है। यह कैसी भव्यशाला है। जिसमें आपको पुरोहित बना करके हम तपस्या में परिणत होने जा रहे हैं। मेरे प्यारे राम के यहां ऋषि-मुनियों का आवागमन होता रहता और तपस्या में परिणत होते रहते। उनका जीवन बड़ा भव्यता में परिणत होता रहता। राम ने 12 वर्ष का अनुष्ठान किया ,12 वर्षों में अध्ययन करते उनको पान करने के लिए तिर्यकसंग कोई कर्तव्य करते। अन्न को पान करने के लिए राम का जीवन बड़ा संचालित हो रहा है। विचार में मग्न है। महात्मा वशिष्ठ मुनि महाराज माता अरुंधति एक समय तपस्वी के दर्शन करने जा पहुंचे। राम ने उनके चरणों की पादुका का जल से स्पर्श करके उसका आचमन किया। आचमन करने के पश्चात भब्रहे कृतम, राम तपस्या में परिणित है। वे तपस्या कर रहे हैं मानव मन को पवित्र बना रहे हैं। क्योंकि मन को पवित्र बनाने का नाम ही तप कहा जाता है। पुराणों को शोधन करने का नाम ही तपस्या कहा जाता है। मेरे प्यारे देखो तपस्यम ब्रह्मा कृतम् लोका:, तपस्या में परिणत है। परंतु ऋषि वशिष्ठ मुनि महाराज और माता अरुंधति दोनों अपने आश्रम से भ्रमण करते हुए राम के समीप पहुंचे। राम उन्हें दृष्टिपात करते हुए उनकी हर्ष की कोई सीमा नहीं रही। ऋषि के चरणों को स्पर्श करते बोले कि प्रभु मेरा यह कैसा अहोभाग्य है। भगवान जो ब्रहमवेता का मुझे दर्शन हो रहा है। मानव देखो दर्शनम ब्रह्मा:, विचार विनिमय कर रहे थे और अपने को विचारशील बनाते हुए, इस सागर से पार होना चाहते हैं। वह अनुपम सागर है जिस सागर के लिए प्रत्येक मानव परंपरागतो से ही महान से महान कल्पना करता रहा है। राम उस अन्न को पान करके तपस्यम्, वशिष्ठ मुनि ने कहा राम तुम इस प्रकार का यह तप क्यों कर रहे हो। उन्होंने कहा प्रभु मैंने लंकापति से संग्राम किया है और संग्राम में मेरी रजोगुण और तमोगुण प्रवृत्ति विशेष कर रही है। उस रजोगुण में मैंने लंका के प्राणी मात्र को नष्ट किया है। मैं इसलिए पापाचार में परिणित हो रहा हूँ। विचारने से यह प्रतीत होता है कि मेरे अंतःकरण में हृदय में जो संस्कार विधमान हो गए हैं। जो संस्कारों की उपलब्धियां हो गई है उन्हें नष्ट करना मेरा कर्तव्य कहलाता है।
बुधवार, 9 अक्तूबर 2019
संकल्पमयी संसार की विशेषता
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