गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

संकल्प विवेचना और धारणा

गतांक से...
 देवी, जब हम जैसे पुत्र माता के गर्भ स्थल में होते हैं तो सप्‍त माह  में दोनों मंडलों की कांतिया आती रहती है और उनके उपयोग को ग्रहण करते हुए । 'अमृतम ब्रह्मणम्‌ ब्रह्म कृतम' गर्भ में विद्यमान बालक में बुद्धि का निर्माण करते हैं। बुद्धि की वर्तिका का जन्म होता है। यदि उस माह में माता के गर्भ से यदि 'विक्षालम्‌ ब्रहे' पृथक हो जाए तो उसको जीवन शक्ति प्राप्त नहीं होती है। यह जीवन की आभा का निर्माण करने वाले हैं। प्रभु ने इस ब्रह्मांड को और पिंड को दोनों को एक सूत्र में लाने का प्रयास किया है। विचार-विनिमय करते, उन्होंने कहा हे प्रभु, यह जो चंद्रमा है इसका मूल क्या है? चंद्रमा का मूल सोम है। उन्होंने कहा सोम का मूल क्या है? उन्होंने कहा सोम का मूल सूर्य कहलाता है। क्योंकि सूर्य से जो कांति आती है शीतल बन जाती है। अमृतमयी बन जाती है। इसकी उत्पत्ति का मूल सूर्य कहलाता है। सूर्य से नाना प्रकार की किरणें आती रहती है। यही सोम बनकर के कृषि को उधरवा में गमन कराती रहती है और खनिज-खाध में भी यही विद्यमान रहती है। मेरे पुत्रों देखो, जब ऋषि ने इस प्रकार वर्णन किया तो माता अरुंधति मौन हो गई। इसी विचार में प्रातः काल हो गया प्रातकाल होते ही  ऋषि वशिष्ठ और अरुंधती अपने आसन से पृथक हुए और अपनी क्रियाओं से निवृत्त हुए। उसके पूर्व राजा दशरथ उनके समीप जा पहुंचे। ऋषि वशिष्ठ बोले कि हे राजन, तुम किस काल में पधारे हो? उन्होंने कहा प्रभु मैं तो सांयकाल आ गया था परंतु तुम्हारे विचार इतने गंभीर हो रहे थे। मैं उन में इतना मगन हो गया कि मुझे कोई प्रतीत ही नहीं हुआ। वह बड़े मन प्रसन्न हुए और 'मंगलम ब्रव्‍हे' राजा से कहा कहो भगवान कैसे आगमन हुआ? उन्होंने कहा प्रभु मैं इस समय बड़ा आपातकाल में हूं। वशिष्ट बोले कि क्या आपातकाल है, उन्होंने कहा कि माता 'ब्राह्मणोंमें वर्तम्‌' देखो माता अरुंधति और आप दोनों को मैं चाहता हूं कि राष्ट्र गृह में जाकर के कौशल्या जी को शिक्षा दें। क्योंकि कौशल्य जी राष्ट्र का अनुकरण नहीं कर रही है। क्षुदा से पीड़ित रहती है अथवा नहीं। इसको मैं नहीं जान पाया। उन्होंने स्वीकार किया और अपनी क्रियाओं से निवृत्त होकर के उनके वाहन में विद्यमान हो करके गमन किया। भ्रमण करते हुए राष्ट्र गृह अयोध्या में आ गए। पर्दाप्रण हुआ तो एक आनंदवत छा गया।
 ब्रह्मावेता राष्ट्र आगमन होना एक सौभाग्य था। राष्ट्रीय ग्रह में आना और भी सौभाग्य था। कौशल्या जी के समीप पहुंचे माता कौशल्या जी ने उन्हें 3 आसन प्रदान किए। एक राजा का, एक माता का और एक पित्र का। जब यह आसन पर विद्यमान हो गए। तो उन्होंने बारी-बारी चरणों को स्पर्श किया और कहा कि भगवान आज कैसे मेरा सौभाग्य जागरूक हो गया है मैं कितनी सौभाग्यशाली हूं। हे भगवान, आप उदगीत गाइए, कैसे आगमन हुआ है। बिना सूचना के बिना कोई कारण के, ऋषि वशिष्ठ मुनि बोले देवी, तुम शांतम व्रहे क्रता। वे शांत विधमान हो गई। ऋषि वशिष्ठ मुनि बोले की हे दिव्या, हे पुत्री, तुमसे हम कुछ प्रसन्न करना चाहते हैं। कौशल्या जी ने कहा भगवान जो मुझे आज्ञा देंगे मैं उसका आदर करूंगी और उसको धारण करूंगी। उन्होंने कहा तो हे दिव्या, हमने यह श्रवन किया है कि तुम राष्ट्र का अनुग्रह नहीं कर रही हो। उन्होंने कहा प्रभु मैं नहीं कर पा रही हूं। उन्होंने कहा कि मैं अपने  उदर स्थल से ऐसे महापुरुष संतान को जन्म देना चाहती हूं त्याग और तपस्या में अपने जीवन को व्‍यतीत करे,मेरी कामना है उसी कामना में सदैव तत्पर रहती हूं। प्रभु जब उन्होंने ऐसा कहा हे ब्रहमणेब्रह' हमारी इच्छा यह है कि तुम राष्ट्र के अन्न को ग्रहण करो। उन्होंने कहा प्रभु मैं राष्ट्र के अन्‍न कों ग्रहण नहीं करूंगी। यह मेरा संकल्प हो गया है और यह जो परमात्मा का जगत है, यह संकल्प में ही नहीं रहता है। यदि परमात्मा का संकल्प है जब परमात्मा ने तप किया था। तपस्या में बहुदा ब्रह्मा को बहुदा की इच्छा बनी तो यह ब्रह्मांड नाना प्रकार के लोक-लोकातंरो में परिणत हो गया। हे प्रभु, यह प्रभु का संकल्प है जितनी आयु उन्हें प्रदान की है उतनी आयु में रहेंगे। उतने समय उनका पिंड बना रहेगा। प्राण सत्ता चली जाएगी, प्राण छिन्न-भिन्न हो जाएगा। प्रभु संकल्पमयी यह संसार है और मैं अपने संकल्पों को नष्ट नहीं करूंगी।


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