शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

महर्षि वशिष्ठ का राष्ट्रवाद उपदेश

गतांक से...
 मेरे प्यारे देखो जब माताएं उसी मंत्र को  के दृष्टा बन करके उसी देवता की उपासना कर रही है। उपासना करते हुए प्राण को अपान से मिलान करते हुए वह अपने गर्भ की आत्मा से वार्ता प्रकट करती है। जो माता अपने गर्भ में रहने वाले शिशु से वार्ता करना जानती है। तो वह देवी धन्य है वे मेरी माता धन्य है। जिनके तरफ से महान पुत्रों का जन्म होता है। इसलिए मम्त्वाम् ब्रह्मा: वे माताए ऋषि-मुनियों को जन्म देकर के अपने जीवन को कृतार्थ बना लेती है। वही तो सौभाग्य झलकने लगता है। विचार आता रहता है मुनिवरो, आज में विशेष चर्चा देने नहीं आया हूं। केवल विचार यह है कि परमात्मा वशिष्ठ मुनि महाराज ने राम से बहुत सी चर्चाए की। उन्होंने कहा यह विद्याए राजा के राष्ट्र में होनी चाहिए। राजा के राष्ट्र में जब यह विद्या होती है तो उसे राष्ट्रवाद कहते हैं। वह ब्रबस ब्रव्हे, वह भी विद्या होनी चाहिए। जब वह तपस्या में परिणत होता हुआ अपनी आत्मा का परमात्मा से मिलन करता हुआ ब्रह्मांड की उसमें पुट लगाकर के ब्रह्मा की चेरी को जानने लगता है। मेरे प्यारे वही तो ब्राह्मणत्व कहलाता है। विचार केवल यह है कि मुनवरो राष्ट्रवाद अपनी आभा में गमन करता रहा है। यदि राजा के राष्ट्र में विवेकी पुरुष नहीं हैं, महापुरुष नहीं है। मेरी पुत्री आप बुद्धिमान नहीं है तो वह राजा अपने राष्ट्र को उन्नत नहीं बना सकता। यह विधाऐ परंपरागतो से ही मानवीय मस्तिष्क में पंडितव के रूप में रमण करती रहती है। ब्रह्मा वेता इस संसार से उपराम हो जाता है। महात्मा वशिष्ठ ने भगवान राम से कहा कि राष्ट्रवाद कहते हैं जिस राष्ट्र की तुम चर्चा कर रहे थे। उसके पश्चात उन्होंने कहा कि प्रभु यह तो मैंने जान लिया कि इसे राष्ट्रवाद कहते हैं। परंतु इसे कार्य रूप कैसे दिया जाएगा। उन्होंने कहा इस प्रकार के बन जाओ तो कार्य रूप स्वत: दिया जाता है। जब अपने में सूक्ष्मता रहेगी तो जगत सूक्ष्म बनेगा। अपने में जब मानवता रहेगी तो जगत मानव बनेगा। जब मानव स्वयं दार्शनिक बनेगा तो मानव दार्शनिक बन जाएगा। जब अपनेपन में मृत्यु को विजय करने वाले बनेंगे तो यह संसार मृत्युंजय बन जाएगाू। जब हम अपने में ब्रह्म ज्ञान की चर्चा करेंगे ब्रह्मज्ञानी बनेंगे तो संसार ब्रह्मज्ञानी बन जाएगा। अपने विचार पर हुए परमात्मा के जगत में अपने को स्वीकार करो। राष्ट्र अपने मे पवित्र बनता है। प्रजा उसी के अनुसार व्यवहार बरतने लगती है और जब राजा इस प्रकार का नहीं होगा तो प्रजा नहीं बरतेगी और जब प्रजा नहीं बरतेगी तो राजा केवल अपने आलस्य प्रमाद में परिणत हो जाएगा। समाज भी उसी प्रकार की अधिकार की पुकार करने लगेगा। अधिकार ही चाहने लगेगा परंतु कर्तव्य नष्ट हो जाएगा। जब अधिकार ही अधिकार को पूर्ण करेगा तो आज तक सृष्टि के प्रारंभ से लेकर के कोई भी मानव किसी का अधिकार को पूर्ण नहीं कर सकता है। कर्तव्य करते रहो अधिकार स्वेत: प्राप्त होता है। उसे आवश्यकता नहीं है पुकारने की । परंतु जब कर्तव्य करता है तो वह अपनी उस आत्मा को प्रसन्न करता है। जो आत्मा प्रभु से मिलान करती है। तो उसके मन में जो इछिंत फल होते हैं वह उसे प्राप्त हो जाते हैं।


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