बुधवार, 18 सितंबर 2019

यमाचार्य नचिकेता वार्ता (कर्तव्यवाद)

गतांक से...
 मेरे प्यारों, गुरुदेव ने बहुत कुछ वाक्य उच्चारण किया है। परंतु देखो इस संसार में यदि कोई राष्ट्र हुआ है और उसमें कोई राजा हुआ है तो भगवान मन हुआ है। उन्होंने जिस नगरी का निर्माण किया, उस नगरी का नाम अयोध्या है। क्योंकि अयोध्या अष्टचक्र और नौ द्वार वाली एकमात्र नगरी है। उसमें मनु महाराज के वंशजों के द्वारा लगभग 1,75,552 वंशजों ने राष्ट्र का पालन किया है। पालन इसी आधार पर किया गया है कि समाज को कर्तव्यवाद में स्थापित करना है। इससे माता का वियोग नहीं दृष्टिपात किया जाता, पिता का वियोग दृष्टिपात नहीं किया जाता। यह वियोग जब नहीं होगा तब मानव सार्थक बनेगा, पवित्र बनेगा। माता अपने कर्तव्य का पालन करेगी। राजा अपने कर्तव्य का पालन करें। समाज कर्तव्य का पालन करके राजा और प्रजा को कर्तव्यवाद में लाता रहे और वह प्रजा का सेवक स्वीकार करें तो राष्ट्रीयता कुछ नहीं रह पाती। राष्ट्रीय तो देखो आधुनिक काल का जो राष्ट्रवाद चल रहा है। यह कैसा राष्ट्रवाद है? वह समाज को, संपदा को अपना-अपना करके अपने में राजा बनना चाहते हैं। परंतु हे राजन, राष्ट्रीय वाद का निवारण करना होगा। तुम मुझे वैसा कर्तव्य करना होगा। जिससे समाज महान बन जाए, जिससे एक दूसरा प्राणी के रक्त का पीपासी न बन जाए। पिपासी अज्ञानता में बनता है। इसलिए तेरे द्वारा ज्ञान होना चाहिए कि पिपासी स्वार्थ में होता है कर्तव्य वाद का पालन करे तो मुनिवर यह राष्ट्रीयवाद का निवारण हो जाएगा। नाना प्रकार की संपदा में रमने वाला समाज कदापि महान नहीं बन सकता है। मैंने बहुत पुरातन काल से इस समाज को दृष्टिपात किया है। महाभारत काल के पश्चात स्वार्थवाद आया था और स्वार्थवाद क्या था? महाराजा शांतनु ने सबसे प्रथम स्वार्थवाद की भावनाएं ग्रहण की।उसने क्या स्वार्थवाद कििया, अपने पुत्र को कहा कि तू ब्रह्मचारी रहे और मेरा संस्कार होो। पुत्र ने ब्रह्मचर्य के वश में प्रतिज्ञा की और पिता का संस्कार हुआ। उसका परिणाम यह हुआ कि महाभारत काल में स्वार्थवाद आया और स्वार्थवाद में विधाता, विधाता रक्त के पीपासे ही बन गए। अज्ञानता में यदि शांतनु के हृदय में स्वार्थ की भावना ना होती तो यह अनुचित क्रियाकलाप नहीं होता है। तो यह समाज नष्ट नहीं हो सकता था। विद्वानों का ह्रास नहीं हो सकता था। परंतु देखो भाव प्रबल है जब मैं यह उदगीत गाता हूं तो यह मानवता का ह्रास हुआ। उसका परिणाम यहां मेरी पुत्रियों के सिंगार को हनन किया गया उसके पश्चात नाना प्रकार की अज्ञानता में संप्रदायों में संप्रदायिकता का जन्म हुआ वह संप्रदाय आधुनिक काल में जितनी पनप रही है राष्ट्र की है क्योंकि राजा इसलिए नहीं होता है एक ईश्वर बाद में कुछ कह रहा है एक धर्म की विवेचना कुछ कर रहा है धर्म केवल मानव इंद्रियों में समाहित रहता है वह इंद्र देखो इंद्रियों वाले धर्म को लाकर के राजा को उसकी व्याख्या करनी चाहिए जब राजा किसी भी मत से मटकी पूजा में जाता है वहां उस धर्म की प्रशंसा करने लगता है वह मार्ग में जाता है वहां वहां मार्ग की प्रशंसा करता है गुरु में जाता है वहां गुरुओं की प्रशंसा करता है यह राजा निर्णय हो जाता है ऐसे राजा नाना धर्म की जो चर्चा कर रहा है अरे धर्म तो ले प्राणी व्याकरण की दृष्टि से एक ही धर्म धर्म धर्म क्या है मानव का पूजन होगा। मुनिवरो, देखो नेत्र,दृष्टि बात करेंगे तो मानव का पूजन होगा और वह जो दृष्टिपात करेगा तो उसकी अंतरात्मा उसे निकालने लगती हैै। वह नेत्रों में धर्म समाहित रहता है वाणी सदैव सत्य उच्चारण करती है। तो उसका धर्म है। अशुद्ध उच्चारण करती है तो उसका धर्म बन जाता है। वाणी का धर्म सत्य ही उच्चारण करना है। सुगंधी में मानव प्रसन्न रहता है सुगंधी में अपने अंतर हृदय को रखता है। अरे, सुगंधी ही उसका जीवन है। देखो इसी प्रकार प्रथा है उसको प्रेम में मग्न होकर के ज्ञान के द्वारा स्पर्श करता है। मैं उसका धर्म है मेरे प्यारे स्रोतों में शब्द आते हैं। आज का हमारा विचार क्या कह रहा है कि हमें इस समाज को ऊंचा बनाना हैै। मानवता की रक्षा करनी है। मानव दर्शन को अग्रणी बनाना है और राष्ट्र के निवारण के लिए चर्चा की है कि प्रत्येक जो रूढ़िवादी आचार्य है। वह एकत्रित होकर के राजा के संविधान में मैं अपने-अपने विचारों की व्याख्या करें और जो विचार विज्ञान से मानवता से स्थिर हो जाए। वह विचार ,वही रहना चाहिए। आज का विचार यह कह रहा है। मैं अपने पूज्य पाद गुरुदेव को वर्णन करा रहा था। क्योंकि पूजा-पाठ गुरुदेव का वह विचार है। जब इस संसार में कोई भी रूढ़िवाद नहीं था। मानवता के यज्ञ की चर्चा करते हैं विज्ञान की चर्चा कर रहे हैं। आज का विज्ञान भी रूढ़िवादी बना हुआ हैै। परंतु उच्चारण करने के लिए तो बहुत कुछ है। परंतु अब मेरा विचार समाप्त होने वाला है। आज का विचार मैं उच्‍चारण कर रहा हूं कि पूज्‍यपाद गुरुदेव को परिचय करा रहा हूं कि काल एक वाम मार्ग का है जहाां राजा भी वाममार्गी है और मत-मतांतर भी  वाममार्गी हुए हैं। देखो कोई आचार्य गुरु जी कहे जाते हैं उनके मानने वाले रक्त को अपने में भक्षण कर जाते हैं। उससे अपने शरीर को बना रहे हैं। शरीरों का निर्माण केवल इसलिए कि जीवन स्तर बना रहे। यही मेरा कर्तव्य नहीं है। हे मााता, मुझे तो संसार को महान बनाना है। क्योंकि यह प्रभु की सृष्टि है और प्रभु की सृष्टि को महान बनाना हमारा कर्तव्य है। आज का विचार क्या है,तेरे जीवन का सौभाग्य अखंड बना रहे। मेरा हृदय गदगद होता है जब यजमान देखो यह अद्भुत यज्ञ का आयोजन होता है। अहिंसा से रहित होता है और धर्म का सदुपयोग किया जाता है। जब प्रत्येक ग्रह में यज्ञ के द्वारा निर्माण का सदुपयोग होता है। वहां पर क्यों  ह्रास हो जाता है? यह आज का वाक्य हमारा समाप्त होने जा रहा है। मैं अपने पूज्य पाद गुरुदेव से आज्ञा पाऊंगा। मेरे प्यारे महानंद जी ने बहुत अच्छे से अपने वाक्य प्रकट किए। वाक्य में बड़ी सार्थकता मुझे प्रतिपादित हो रही हैै। परंतु यह उनकी जो वेदना है जो विडंबना है वह बड़ी विडंबित मेरे हृदय में समाहित हैै। इसलिए जब प्रभु की अनुपमता होगी तो प्राय ऐसे राजा भी होंगेे। ऐसा कोई वाक्य नहीं है परंतु संसार में अपने शब्दों में रत करते रहना चाहिए। अपने विचारों को महानता देनी चाहिए। वायुमंडल में जो विचार भ्रमण करते रहे। किसी न किसी काल में वह महान विचार मानवता के अंतरण को छूकर के पवित्र बना सकते हैं। यह आज का विचार अब समाप्त होने जा रहा है। अब वेदों का पठन-पाठन होगा।


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