गतांक से...
मैंने तुम्हें बहुत पुरातन काल में पूजन की चर्चाएं की है। पूजा किसे कहते हैं पूजा का अभिप्राय क्या है? हम उसको जानना चाहते हैं उसको जान करके उसका सदुपयोग करना ही वह उसकी पूजा कहलाती है। हमारे शरीर में जो अग्नि का प्रभाव हो रहा है। उस अग्नि का सदुपयोग करना। हे ब्रह्मचारीजन, तू अग्नि विद्या का अध्ययन कर, यह विद्या को अध्ययन कर रहा है। अपने में अध्ययनशील बना हुआ है। वेद मंत्र के ऊपर विचार-विनिमय करता हुआ अपनी धुर्वा में गति करता है। कहीं उधरवा में गति कर रहा है, कहीं पुरुषार्थ प्रतिक्रिया में रत हो जाता है। विचार-विनिमय क्या है। वह ग्राह्यपथ्य नाम की अग्नि का पूजन कर रहा है। ग्राहपथ्य नाम की अग्नि उसे कहते हैं। जो ब्रह्मचारीयो के ह्रदय में सीमट करके ब्रह्मचारी तेजस्वी बना रहता है। और उसको प्राप्त होता हुआ ऊंची ऊंची उड़ान उड़ रहा है। वह लोक लोकातंरो के लिए अपने में विचार विनिमय करता रहता है। जब हम अपने पूज्य पाद गुरुओं के द्वारा अध्ययन करते थे। तो वह अपने विचारों में और ब्रह्मचारीयो के विचारों का दोनों का समन्वय करते रहते थे। और उनका समन्वयक करते हुए विचारते रहते, ज्ञान और विज्ञान की धाराओं में रह-रहकर के एक-एक अणु और परमाणु में गति करते हुए ऊंची ऊंची उड़ान उड़ते रहते हैं। तो विचार-विनिमय क्या है यमाचार्य ने कहा, हे नचिकेता। सबसे प्रथम ब्रह्मचारी अपने स्वर्ग लोक में चला जाता है। वह विद्या का अध्ययन करता है। उसको क्रिया में रूप बनाना अपने में ब्रह्मचर्य का पालन करना
। उसका सदुपयोग करना यह नाम की अग्नि के समीप जब ब्रह्मचारी चला जाता है। तो वह स्वर्ग में चला जाता है। उसका वही स्वर्ग है। आचार्य भी उसे मन ही मन में नतमस्तक हो जाता है। ब्रह्मचर्य के दोनो शब्दों में उसकी प्रतिभा भाषित रहती है। ब्रह्मचर्य दो ही शब्द है। ब्रह्म कहते हैं परमपिता परमात्मा को और च्रय कहते हैं प्रकृति को। दोनों का अनुसंधान करना है यह उसका कर्तव्य कहलाता है। प्रत्येक सांस की प्रत्येक गति जब वह एक सूत्र में पिरो देता है तो वह ब्रह्मचारी बन जाता है। विद्या का अभिप्राय केवल यही है विद्या के ऊपर हमारा अन्यथा अनुसंधान होना चाहिए। नचिकेता को यमआचार्य ने कहा, कि हम जब पूज्य पाद गुरुदेव के द्वारा अध्ययन करते थे तो एक समय हम विचार-विनिमय करते-करते इन नोदामई मंत्रों का अध्ययन कर रहे हैं और अध्ययन करते हमें एक वेद मंत्र स्मरण आया। वेद मंत्र कहता था कि 'प्रमाणमवृहे वचनाम ब्रह्म वाचा वर्तमाम् देवा: वाचन्नम् ब्रह्मवाचा मन:' वेद का मंत्र कहता था कि हम उस परमाणुवाद के क्षेत्र में, ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में, अपने को कैसे ऊंचा बनाए। तो मुनिवरो, जब आचार्य के समीप पहुंचे तो आचार्य ने हमें नोदा में से मंत्रों को उद्धृत करते हुए कहा कि संभूति 'ब्रह्मवाचा ग्रहलोकाम वचनाम् ब्रह्मलोकवती' यही तो व्रत कहलाता है। उन्होंने पूज्यपाद गुरुओं ने यह वर्णन कराया है जो अनुवाद है, परमाणु वाद है। इसी में ब्रह्मांड निहित रहता है। इसी विद्या को जानकर के मानव समाज और राजनीति समाज को ऊंचा बना करके। हम अपने उदारवागति में ऊंची-ऊंची उड़ान उड़ते रहते हैं। तो यह वाक उन्होंने प्रकट कराया। इस बात का अध्ययन करते हुए हम तुम्हें यही उच्चारण कर रहे हैं। वही ब्रह्मचारी का स्वर्ग है। स्वर्ग किसे कहते हैं जहां दुखद की घटना न आए,कलह न आए। परंतु स्वर्ग उसे कहते हैं जो आप कह रहे। यहां एक दूसरे का वायुमंडल बन जाता है। हर एक सांस बन बन जाता है। वह नरकीय ग्रह कहलाता है। जिस विद्यालय में एक दूसरे के विचारों में मत हो जाता है। एक दूसरे के विचारों में विवाद की प्रवृत्ति बन जाती है। वह विद्यालय अपवित्र हो जाता है।
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