बुधवार, 14 अगस्त 2019

दुख-सुख का जन्मदाता 'विवेक'

मनुष्य के लिए विवेक का उपयोग विशेष और मुख्य है।जो व्यवहार और परमार्थ में, लोक और परलोक में सब जगह काम आता है। परन्तु जो मनुष्य देह के उपयोग को विवेक अनुसार समझ सके, उसके लिए भगवान स्वधर्म पालन की बात कहते हैं। जिससे वह कोरा वाचक ज्ञानी न बनकर वास्तविक तत्व का अनुभव कर सके। संसार में व्यवहार अलग-अलग होते हुए, विवेकी मनुष्य के लिए परमात्मा एक ही है।  सभी का संसार इक व्यवहार भिन्न-भिन्न हो सकता है। यस विवेक से ही निर्धारित होता है कि दूध गाय का पिएंगे या गधी का पिएंगे? सवारी हाथी की करेंगे कि कुत्ते की करेंगे? तो ज्ञान में एकता होती है, पर व्यवहार में भिन्नता होती है। माता है, बहन है सबसे अलग अलग व्यवहार है, व्यवहार की विभिन्न प्रकृति में होती है। एक समान व्यवहारिकता के चलते अब तक प्रलय हो जाता है। जिनका मन सौम्यावस्था में स्थिर हो गया वो संसार को जीत गए । सबमें परमात्मा ही देखें। अतः अतं-करण में विकार, जन्म-मरण देने वाला है । समता से परमात्मा में स्थिति हो जाती है। बर्ताव ठीक तरह से यथा योग्य हो, यही उपदेश गीता का सिद्धांत है। सेवा सबकी करनी है, भीतर राग द्वेष न हो। सर्व भूत हिते रता:। तो ज्ञानी की दृष्टि परमात्मा की तरफ रहती है। सम सुख दुःख स्वस्थ: । सबका हित करो, अपना स्वार्थ त्याग कर । संसार को परमात्मा का स्वरूप कहा है, और संसार को दुखालय भी कहा है। दोनों विरुद्ध बात है । तो जो लेना चाहता है उसके लिए दुखालय है, और जो सेवा करता है तो परमात्मा का स्वरूप है।


सनातनी संदीप गुप्ता


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