संस्था और सन्न्यास
लोगों की एक मूर्खता है । सन्यासी को देखते ही पूछते हैं कि 'तुम किस संस्था के हो' ? राम सुख दास 'गीता प्रेस' संस्था से जुड़े थे । उस संस्था ने उन के जरिये खूब आर्थिक लाभ कमया । रामसुख दास जीवन के अन्तिम चरण में गीता भवन ऋषिकेश में रहते थे । मैं भी उन दिनों ऋषिकेश में ही रहता था । एक दिन हमने सुना कि वे गीता भवन छोड़ के राजस्थान चले जायेंगे । कारण था कि गीताभवन के ट्रस्टियों ने उनके साथ कुछ धोखा किया था । हमने पता लगाया घटना सही थी । बाद में ट्रस्टियों ने उनकी बात को मजबूरन मान लिया तो वे नहीं गये ।
रामसुख दास के देहांत होनेपर गीताप्रेस वालों ने उनका जैसा अंतिम संस्कार किया खुद निर्मल अखाड़े के श्रीमहन्त ज्ञान देव ने वह देख कर हमारे पास दुःख व्यक्त करने लगे । विधिपूर्वक एक सन्त का जो अन्तिम क्रिया कर्म विहित है उसे भी गीताप्रेस वालों ने नहीं किया । रामसुख दास जी के साथ जितने सन्त रहते थे उन सबको बाद में क्रमशः अत्यन्त अपमानित ढंग से गीता भवन से बाहर निकाल दिया गया कुमारी-कंकण-न्याय से साधु को असंग और एकान्त में रहना चाहिये कोई भी धार्मिक संस्थान यथार्थ आध्यात्मिक तपोभूमि नहीं है । वह धर्म और अध्यात्म के नाम पर होनेवाले समस्त अपराधों का सुरक्षित स्थान है ।
अवधूत ज्ञानानन्द
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