ब्रह्म - वेद का पाठक अथवा ब्रह्म परमात्मा का ज्ञाता।
ऋग्वेद की अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया था, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के 'पुरुषसूक्त' (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ण क्षत्रियों से ऊँचा माना गया है। राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण क्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ ब्राह्मण में वर्णित ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती। इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वागींण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हुआ है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता ('भूसुर') कहे गये है, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी) तथा सोम पीने वाला (आपायी) कहा गया है। उसके दो अन्य विरूद 'आवसायी' तथा 'यथाकाम-प्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है। पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है।[3]
पाणिनि काल में ब्राह्मण
कात्यायन ने चार वर्णों के भाव या कर्म को चातुर्वर्ण्य कहा है।[4] आनुपूर्वी क्रम से चारों वर्णों के लिये 'ब्राह्मणक्षत्रियविट् शूद्रा:' यह समस्त पद प्रयुक्त होता था।[5] पाणिनि ने 'ब्रह्मन्' और 'ब्राह्मण' दोनों शब्दों को पर्याय रूप में प्रयुक्त किया है। ब्रह्मन् के लिए हितकारी इस अर्थ में ब्रह्मण्य पद बनता था।[6] पतंजलि ने इसका अर्थ 'ब्राह्मणेभ्य: हितम्' किया है। उनका कहना है कि ब्रह्मन् और ब्राह्मण पर्यायवाची हैं।[7], किंतु यत् प्रत्यय ब्रह्मन शब्द से ही होता है, ब्राह्मण से नहीं। ज्ञात होता है कि पाणिनि-काल में ब्रह्मन शब्द ब्रह्मणोचित अध्यात्मिक गुण-सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता था और ब्राह्मण जन्म पर आश्रित जाति के लिए। ब्राह्मण के भाव (आदर्श) और कर्म (आचार) के लिये ब्राह्मण्य पद सिद्ध किया गया है।[8] नाम मात्र के आचारहीन ब्राह्मण 'ब्रह्मबंधु' कहलाते थे। ऐतरेय ब्राह्मण, छन्दोग्य उपनिषद, श्रौतसूत्र एवं गृह्यसूत्रों में 'ब्रह्मबंधु' शब्द पाया जाता हैं। सूत्र 6।3।44 की काशिका वृत्ति में उदाहृत 'ब्रह्मबंधुतर' और 'ब्रह्मबंधुतम' प्रयोग बताते हैं कि 'ब्रह्मबंधु' पद के पीछे कुत्सा परक व्यंग्य की कई कोटियाँ थीं। पाणिनि के समय में केवल जाति का अभिमान करने वाले कर्म-विहीन ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मबंधु की तरह 'ब्राह्मणजातीय' यह नया विशेषण भी प्रचलित हो गया था।[9]
जनपदों के अनुसार ब्राह्मणों के नाम
'ब्रह्मणो जानपदाख्यायां'[10] सूत्र से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न देशों में बस जाने के कारण ब्राह्मणों के अलग-अलग नामों की प्रथा चल पड़ी थी। कंबोज जनपद से लेकर कलिंग-अश्मक-कच्छ-सौवीर जनपदों तक फैले हुए विस्तृत प्रदेश में ब्राह्मण फैल चुके थे। स्वभावत: पृथक्-पृथक् भूखंडों के अनुसार उनके अलग नाम भी पड़े होंगे। काशिका में सुराष्ट्र ब्रह्म (सुराष्ट्रेषु ब्रह्म) और अवंति ब्रह्मा ( अवंतिषु ब्रह्मा) ये दो उदाहरण हैं। अवंतिब्रह्म मालव ब्राह्मणों के पूर्ववर्ती थे, क्योंकि उज्जयिनी के साथ शब्द का सम्बंध गुप्त काल के लगभग आरम्भ हुआ। इसी प्रकार गुजराती और कच्छी ब्राह्मणों के पूर्ववर्ती सुराष्ट्र के ब्राह्मण रहे होंगे। जनपदों के अनुसार नाम पड़ने के कारण ब्राह्मणों के पंचगौड़ और पंचद्राविड़ दो मुख्य भेद कालांतर में प्रसिद्ध हुए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Thank you, for a message universal express.