मंगलवार, 9 जुलाई 2019

बल और अशक्ति से परिपूर्ण ( श्रीमद् भागवत)

 


संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन:


श्लोक :-बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥


अर्थ :-हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ॥
और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं' ऐसा जान, परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं॥


गीता का ज्ञान


सम्पूर्ण सृष्टि में ईश्वर का वास है,कण-कण में ईश्वर विद्यमान है..हर जीव में ईश्वर उपस्थित हैं! इसलिए यही समझ रखते हुए हमें सबको समान नजर से देखने का हमारे शास्त्र आदेश देते हैं ! लेकिन जहाँ व्यक्ति ईश्वर गुणों को छोड़ आसुरी गुणों से प्रभावित होता है उसको सजा देने का प्रावधान भी हमारे शास्त्रों में हैं !


आज के इस युग मे आसुरी प्रभाव बढ़ता जा रहा है इसलिय आवश्यक है की धर्म रक्षा के लिए इस आसुरी प्रवर्ती के लोगों का विरोध हो उनका संहार किया जाय!


धर्म का अनादर करना धर्म का अपमान सहना दोनों ही जघन्य अपराध है, इसलिए अधर्म का विरोध जरूरी है!


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