क्या भाषा है, इन पन्नों की
अब तक समझ ना पाया,
हर पल इक पन्ना पलट रहा हूं
फिर भी ना कुछ पढ़ पाया... इन पन्नों की क्या भाषा है...
खुशियों के कहीं दिया जले हैं,
कहीं गम के लिखे फसाने
कहीं भीड़ में भी है कुछ लोग अपने
कहीं घर में भी अनजाने
कहीं चैन सुकून से बीता जीवन. कहीं एक पल आराम ना आता है....
इन पन्नों की क्या भाषा है....
कहीं बर्बादयो के हैं रास्ते
कहीं बरकते बेहिसाब है
चेहरा किसी का दिखता नहीं
हर चेहरे पर नकाब है
कहीं मांझी से डूबी कश्ती
कहीं नजदीक बहुत किनारा है.... इन पन्नों की क्या भाषा है
डॉ. बृजेश झा
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Thank you, for a message universal express.